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१४१. एक पत्र

आषाढ़ शुक्ल १४ [ १३ जुलाई, १९२७][१]

नामके महीमाके बारेमें तुलसीदासने कुछ भी कहनेका बाकी नहीं रखा है । द्वादश मंत्र[२], अष्टाक्षर[३] इ० सब इस मोहजालमें फसा हुआ मनुष्यके लीये शांतिप्रद है, और जिससे जिसको शांति मीले उस मंत्रपर निर्भर रहे। परंतु जिसको शांतिका अनुभव ही नहि है और जो शांतिकी खोज में है उसको तो अवश्य रामनाम पारस मणि बन सकता है । ईश्वरके सहस्र नाम कहे हैं उसका अर्थ यह है की उसके नाम अनन्त है, गुण अनन्त हैं। इसी कारण ईश्वर नामातीत और गुणातीत भी है। परंतु देहधारीके लीये नामका सहारा अत्यावश्यक है और इस युगमें मूढ और निरक्षर भी रामनाम रूपी एकाक्षर मंत्रका सहारा ले सकता है। वस्तुतः राम उच्चारणमें एका- क्षर ही है और ओंकार और राममें कोई फरक नहि है । परंतु नाम महीमा बुद्धिवाद से सिद्ध नहि हो सकता है। श्रद्धासे अनुभवसाध्य है ।

मोहनदास गांधी

एस० एन० १२७९७ की फोटो नकलसे ।

१४२. भाषण : महिला-समाज, बंगलोर में[४]

१३ जुलाई, १९२७

दरिद्रनारायण कभी सन्तुष्ट नहीं होता, और उसका उदर इतना बड़ा है कि आप जितना भी धन और आभूषण दे सकती हैं, वे सब उसमें समा जायेंगे। आभूषण तो स्त्री धन है, और आप जैसे चाहें उनका उपयोग कर सकती हैं। आपके असली आभूषण आपके सद्गुण हैं। अपने आभूषणोंमें से कुछ आभूषण देकर आप देशके गरीबोंकी सच्ची सेवा करेंगी ।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, २१-७-१९२७

  1. साबरमती संग्रहालय में इस पत्रको १९२७ के पत्रोंके साथ रखा गया है।
  2. ओम् नमो भगवते वासुदेवाय ।
  3. ओम् नमो नारायणाथ ।
  4. महादेव देसाईके “ साप्ताहिक पत्र " से ।