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१४३. भेंट : श्री और श्रीमती बियरमको[१]

[ १४ जुलाई, १९२७के पूर्व ]

गांधीजीके नये मिशनरी मित्रोंमें एक डेनिश दम्पती श्री और श्रीमती बियरम हैं । ... जब ये लोग आये, उस समय गांधीजी चरखा चला रहे थे ।

श्री बियरमने कहा : हमने प्रदर्शनीमें जो चरखे देखे थे, यह उनसे भिन्न है ।

गांधीजी : हाँ, यह सफरी चरखा है । बन्द कर देनेपर यह दवाओंकी सन्दूकची-सा दिखने लगता है, और यह हमारे देशके गरीब लोगोंके लिए दवाओंकी सन्दूकची ही है।

प्रदर्शनीके सुखद अनुभव सुनानेके बाद बियरम अपने कालेज के विद्यार्थियोंके बारेमें बातें करने लगे। उन्होंने कुछ खेदके साथ गांधीजीको बताया कि “हमारे कालेज के विद्यार्थियोंकी पोशाक यूरोपीय ढंगकी है। "

गांधीजी : यह बहुत दुःखकी बात है कि ईसाई धर्मको विदेशी पोशाक और खान-पानके विदेशी तौर-तरीकोंके साथ संयुक्त कर दिया जाये ।


श्रीमती बियरम : यह सचमुच दुःखकी बात है । लेकिन क्या आप ऐसा नहीं समझते कि परिवर्तनका शुभारम्भ हो गया है ?

गांधीजी : हाँ, विचारोंमें परिवर्तन अवश्य आ रहा है, लेकिन उतना ही परि- वर्तन आचरणमें नहीं आ रहा है ।

इसी सन्दर्भ में उन्होंने कलकत्ता स्थित वाई० एम० सी० ए०के अपने मित्रोंके बारेमें कुछ निजी अनुभव सुनाये ।

श्री बियरम : यदि मिशनरी लोग भारतमें टिके रहना चाहते हैं तो उनके कामका क्या रूप होना चाहिए, इस बारेमें क्या आप हमें कुछ बतायेंगे ?

[ गांधीजी : ] हाँ, क्यों नहीं। उन्हें अपना रवैया बदलना होगा। आज वे लोगोंसे कहते हैं कि उनके लिए 'बाइबिल' और ईसाई धर्मको छोड़कर मुक्तिका और कोई मार्ग नहीं है । अन्य धर्मोको तुच्छ बताना तथा अपने धर्मको मोक्षका एकमात्र मार्ग बताना उनकी आम रीति हो गई है। इस दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन होना चाहिए। उन्हें लोगोंके सामने अपने असली रूप में आना चाहिए। और हिन्दुओंको बेहतर हिन्दुओंके रूपमें और मुसलमानोंको बेहतर मुसलमानोंके रूपमें देखकर प्रसन्न होना चाहिए। उन्हें नींवसे काम शुरू करना चाहिए। उन्हें उनमें जो अच्छी-अच्छी बातें हैं उनको जानना चाहिए। वे उनके सामने जो चीजें रखें, वे उन बुनियादी गुणोंसे असंगत न हों। इस तरह उनका कार्य ज्यादा प्रभावकारी होगा और वे जो देंगे उसे लोग बिना किसी सन्देह और विरोधी भावनाके ग्रहण कर लेंगे। संक्षेपमें,

  1. महादेव देसाईके “ सप्ताहिक पत्र" से ।