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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

खूबी देवनागरी लिपिमें है, उतनी और किसी लिपिमें नहीं है तथा इस प्रयोजनके लिए कोई भी दूसरी लिपि उतनी पूर्ण और परिष्कृत नहीं है जितनी कि देव- नागरी है। इसी कामको आगे बढ़ाने के लिए एक अखिल भारतीय संगठन भी है, या कहिए, हुआ करता था । मुझे मालूम नहीं कि आजकल वह संस्था क्या कर रही है । परन्तु यदि इस कामको करना है तो या तो पहलेकी उसी संस्थाको अधिक मजबूत बनाना चाहिए या फिर एक नई संस्था खड़ी की जानी चाहिए। हाँ, इस आन्दोलनको किसी भी हालत में हिन्दी-प्रचार या हिन्दुस्तानीको भारतकी राष्ट्रभाषा बनानेके प्रचार-आन्दोलनके साथ मिलाकर नहीं रखना चाहिए; दोनोंको बिलकुल अलग-अलग ही रखना चाहिए। यह दूसरा काम धीरे-धीरे, पर एक निश्चित गतिसे आगे बढ़ रहा है। एक ही लिपि- के प्रयोगसे एक भाषाके प्रसारमें आसानी होगी। परन्तु, दोनोंके प्रयोजनोंमें साम्य एक हदतक ही है । हिन्दी या हिन्दुस्तानीको प्रान्तीय भाषाओंके स्थानपर प्रतिष्ठित करनेकी कोई बात नहीं है; इसका प्रयोजन तो प्रान्तीय भाषाओंकी सहायता करना, उनकी कमीकी पूर्ति करना और अन्तरप्रान्तीय सम्पर्कके माध्यमका काम करना ही है। जबतक हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच तनाव रहता है, तबतक हिन्दुस्तानीके दो रूप बने रहेंगे - फारसी या अरबी शब्दोंसे लदी फारसी लिपिमें लिखी जानेवाली उर्दू, या फिर संस्कृत शब्दोंकी भरमारवाली देवनागरी लिपिमें लिखी हुई हिन्दी । जब दोनोंके बीचका तनाव मिट जायेगा, दोनोंके दिल मिल जायेंगे, तब एक ही भाषाके ये दोनों रूप भी परस्पर घुल-मिल जायेंगे और तब हमारे पास जो भाषा होगी, वह दोनोंका मिश्रण होगी। उसमें संस्कृत, फारसी, अरबी या अन्य भाषाओंके उतने ही शब्द रह जायेंगे जितने कि उसके पूर्ण विकास और पूर्ण अभिव्यंजना-शक्तिके लिए सचमुच जरूरी होंगे ।

परन्तु एक ही लिपिको अपनानेका उद्देश्य निस्सन्देह अन्य सभी लिपियोंको हटाकर उनके स्थानपर उस एक लिपिको प्रतिष्ठित करना है, जिससे कि विभिन्न प्रान्तों- के निवासी दूसरे प्रान्तोंकी भाषाएँ आसानीसे सीख सकें । इस उद्देश्यकी पूर्तिका सबसे अच्छा उपाय यही है कि अव्वल तो देशकी सभी पाठशालाओंमें कमसे-कम हिन्दुओंके लिए देवनागरी लिपि सीखना अनिवार्य कर दिया जाये, जैसा कि गुजरातमें है, और दूसरे, विभिन्न भारतीय भाषाओंमें उपलब्ध श्रेष्ठ साहित्य देवनागरी लिपिमें छापा जाये । एक हदतक ऐसा प्रयास किया भी गया है। मैंने देवनागरी लिपिमें मुद्रित 'गीतांजलि' देखी है । परन्तु यह काम काफी बड़े पैमानेपर किया जाना चाहिए और ऐसी पुस्तकोंका प्रचार किया जाना चाहिए। हालांकि मैं जानता हूँ कि आजकल हिन्दुओं और मुसलमानोंको एक-दूसरेके निकट लानेका कोई रचनात्मक सुझाव पसन्द नहीं किया जाता, फिर भी में यहाँ अपनी वह बात दोहराये बिना नहीं रह सकता जो मैं इन स्तम्भोंमें और अन्यत्र भी कई बार कह चुका हूँ - अर्थात् यदि हिन्दुओंको अपने मुसलमान भाइयोंके और निकट आना है तो उनको उर्दू सीखनी चाहिए, और यदि मुसलमानोंको अपने हिन्दू भाइयोंके और निकट आना है तो उनको हिन्दी सीखनी चाहिए । हिन्दुओं और मुसलमानोंकी वास्तविक एकता में विश्वास रखनेवालोंको दोनोंके