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सत्याग्रहकी सीमाएँ

बीच मौजूद पारस्परिक घृणाके वर्तमान विस्फोटसे निराश नहीं होना चाहिए। उनके विश्वास में यदि सचमुच कोई बल है तो उनको जब भी मौका मिले, उन्हें बिना किसी दिखावेके पारस्परिक सहिष्णुता, स्नेह और सौजन्यका हरएक कार्य प्रयासपूर्वक करना चाहिए। और इस दिशा में हम कमसे कम यही कर सकते हैं कि एक-दूसरेकी भाषा सीखें। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही एक-दूसरेके धार्मिक ग्रन्थों और एक-दूसरे- के धर्मोके अधिष्ठापकों और उन्नायकोंके बारेमें घोर अज्ञानी या धर्मान्ध लोगों द्वारा लिखी गई सभी बेहूदा बातोंको अपने दिमागोंमें भरते चले जायें, इसके बजाय क्या यह अच्छा नहीं रहेगा कि हिन्दू 'कुरानशरीफ' और पैगम्बरके बारेमें मुसलमानोंके विचार जाननेके लिए आला काबलियतके अनेक धर्म-प्रवण मुसलमानों द्वारा लिखी गई उर्दू पुस्तकोंका अध्ययन करें; और मुसलमान 'गीता' और श्रीकृष्णके बारेमें हिन्दुओंकी भावनाओंको समझने के लिए धर्म-प्रवण हिन्दुओं द्वारा लिखी गई उतनी ही अच्छी हिन्दी पुस्तकोंका अध्ययन करें ?

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, १४-७-१९२७


१४६. सत्याग्रहकी सीमाएँ

गुजराती में लिखे मेरे एक पत्रके[१] एक सर्वथा निर्दोष अनुच्छेदके आधारपर लोगोंने सत्याग्रह तथा उसके प्रणेताको ऐसे गलत रूपमें पेश किया है, जिसे मैं विवेक- हीनताका द्योतक कहनेकी धृष्टता करता हूँ । पत्र बिलकुल निजी ढंगका था और इसे मैंने श्री भरूचाके एक ऐसे पत्रके उत्तरमें लिखा था, जिसमें अन्य अनेक विषयोंकी चर्चा थी । पत्र सत्याग्रहपर लिखा कोई प्रबन्ध नहीं है और हर पत्रकी तरह उसमें भी कई ऐसी बातें हैं जिनके बारेमें मूल पत्र लेखक और उत्तर देनेवालेके बीच पहलेसे ही एक प्रकारकी सहमति होती । वह समाचारपत्रोंमें प्रकाशनके लिए नहीं लिखा गया था। पर श्री भरूचाने जब उस अनुच्छेदके प्रकाशनकी अनुमति तार द्वारा माँगी, तो मैंने भी तार द्वारा ही उसकी अनुमति बेहिचक भेज दी। समाचारपत्रका जो विवरण मेरे सामने है, उसको देखकर लगता है कि नागपुरकी सभा में बोलनेवालोंने यह बात कही कि मैंने श्री भरूचाके नाम अपने पत्र में जो स्पष्टीकरण किया है, वह मुझे तभी कर देना चाहिए था, जब नागपुर सत्याग्रह शुरू किया गया था। में इस विचारसे कतई सहमत नहीं हूँ । यदि श्री आवारीने मुझे अपने आन्दोलनका समर्थक न बताया होता तो मैंने उसके प्रतिवाद में वह लेख भी न लिखा होता जो मैंने लिखा है । मेरा तो नियम है कि यदि मैं किसी काममें कोई सहायता नहीं कर सकता तो मैं उसमें अपनी ओरसे बिना जरूरत या बेवजह हस्तक्षेप करके उसमें कोई बाधा भी नहीं पहुँचाता। इसीलिए उस समय नागपुरमें सत्याग्रहके विषयमें मैं जो कुछ जानता

  1. देखिए “ पत्र : बी० एफ० भरूचाको”, २-७-१९२७ के पूर्वं ।