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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ही भाग्यके भरोसे क्यों छोड़ दिया जाये, जब कि आप यह स्वीकार करते हैं कि शेष राष्ट्रके साथ उनकी एकता स्वराज्यके लिए उतनी ही आवश्यक है, जितनी कि हिन्दू-मुस्लिम एकता ? हम इन योजनाओं और समझौतोंमें अपने समाजकी बाल-विधवाओंके कष्टों के निवारणकी चर्चा इसलिए नहीं करते कि (१) ये विधवाएँ अपने-आपमें एक विशिष्ट समुदाय नहीं हैं, (२) इनकी सहायता के लिए कानून बनाये गये हैं और (३) हममें से अधिकांश लोग (चाहे यह सही हो या गलत ) ऐसा नहीं मानते कि उनकी अवस्थामें सुधार करना स्वराज्यकी अनिवार्य शर्त है। अगर स्पृश्यों और अस्पृश्योंकी पारस्परिक एकताके लिए कानून बनाना बेकार है तो हिन्दू-मुस्लिम एकताके लिए भी वह उतना ही निरर्थक है । लेकिन, हम व्यवहारमें देखते क्या हैं ? स्वराज्य और हिन्दू- मुस्लिम एकताके नामपर हमारे कानूनों, समझौतों और योजनाओं में सिर्फ उन्हीं लोगोंकी (सही या गलत) जरूरतोंका खयाल रखा जाता है जो अपनी जरू- रतों और माँगोंका डंका ऊँची आवाजमें पीटते हैं और जो समुदाय सचमुच सबसे अधिक जरूरतमन्द है उसकी जरूरतोंका कोई खयाल नहीं किया जाता । और बहानेके तौरपर यह दलील दी जाती है कि किसी भी समुदायके लिए विशेष व्यवस्था करना एक आवश्यक बुराई है।

तो अब मेरा कहना यह है कि अगर समुदाय विशेषके लिए विशेष व्यवस्था करना एक आवश्यक बुराई है तो इस बुराईको वहाँ बरदाश्त कीजिए जहाँ यह सबसे अधिक आवश्यक हो - अर्थात् इसे उन दलित वर्गके लोगोंकी हदतक बरदाश्त कीजिए जिनके बारेमें आप पहले ही स्वीकार कर चुके हैं कि ये लोग मुसलमानोंकी तुलना में विशेष व्यवहारके कहीं ज्यादा हकदार हैं । किन्तु, सिर्फ जोरदार आवाजमें अपनी जरूरतोंका डंका पीटनेवालोंके सम्बन्धमें, अर्थात् हमारे मुसलमान देश-भाइयोंके सम्बन्ध में तो इस बुराईको बरदाश्त करना ठीक नहीं होगा। जातीय प्रतिनिधित्वको जानी-मानी बुराइयोंके बावजूद और किसी रूपमें जातीय प्रतिनिधित्वको स्वीकार करना भी हो तो भी सभीके साथ निष्प- क्षता बरतते हुए इसे स्वीकार किया जाये. .।[१]

मैं पत्र - लेखकके इस विचारसे पूर्णतः सहमत हूँ कि अगर स्वराज्यके किसी भी भावी संविधान में किसी एक जातिके लिए विशेष व्यवस्था की जाये तो उसी स्थिति में पड़ी दूसरी जातियोंके लिए भी वैसी व्यवस्था करनी पड़ेगी - चाहे उसके लिए माँग और आन्दोलन किया जा रहा हो अथवा नहीं। हिन्दू-मुस्लिम एकताके विषयमें लिखे अपने हालके लेखमें[२] मैंने अपनी यह सोची-समझी राय जाहिर की है कि हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच होनेवाले किसी भी समझौते के सम्बन्धमें कोई कानून नहीं बनाया

  1. पत्रके शेष अंशका अनुवाद नहीं दिया जा रहा है।
  2. देखिए "हिन्दू-मुस्लिम एकता ", १६-६-१९२७ ।