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१५५. पत्र: उत्तम भिक्खुको

कुमार पार्क,बंगलोर

१७ जुलाई, १९२७

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला, धन्यवाद । बर्मा जा सकता तो मुझे कितनी खुशी होती ! परन्तु मैं जो थोड़ी-बहुत शक्ति फिर हासिल कर सका हूँ उसे यदि मैं बनाये रख सका तो इस वर्षके अधूरे पड़े कार्यक्रमको पूरा करने में ही उसे लगाना पड़ेगा। उसके बाद मेरा क्या बनेगा, नहीं कह सकता ।

बर्माके भारतसे अलग होनेके सवालपर मैं यही कह सकता हूँ कि यदि बर्माके लोग अलग होना ही चाहते हों तो उनके साथ मेरी पूरी सहानुभूति है । पर अगर उनको भारतके साथ रहने में लाभ हो, तो मैं अवश्य चाहूँगा कि वे सम्बन्ध-विच्छेद न करें । वर्तमान स्थिति में तो मुझे यही लगता है कि भारत आजकल ब्रिटेनके साथ मिलकर बर्माका शोषण कर रहा है। हम दोनोंकी संस्कृतियोंका मूल एक ही है, इसलिए मुझे यह बात बहुत अच्छी लगती है कि बर्माको भारतमें मिला दिया जाये । परन्तु इस प्रकारका संविलयन सहज, और तब स्वाभाविक ढंगसे होना चाहिए, जब दोनों ही अपनी-अपनी स्वतन्त्र शक्तिको पहचान लें । पर मैं स्वीकार करता हूँ कि में यह कोई बड़े अनुभवके आधारपर नहीं कह रहा हूँ । इसलिए में एक सामान्य सिद्धान्त ही सामने रख सकता हूँ, वह यह कि बर्मा अलगसे एक सम्पूर्ण प्रभुता - सम्पन्न राज्य बने या भारतका एक प्रान्त बनकर रहे, इसके निर्णयका एकमात्र आधार यही होना चाहिए कि बर्माका अपना हित किस बात में है । 'यंग इंडिया ' में इसकी चर्चा शुरू करके मैं आपके पक्षको सबल या निर्बल नहीं बनाना चाहता । यह तो में बर्माकी अपनी यात्राके बाद समस्याको स्वयं समझ लेनेके बाद ही कर सकूंगा, बशर्ते कि ईश्वर मुझे इसका अवसर दे । मैं आपका पत्र प्रकाशित नहीं कर रहा हूँ ।

हृदयसे आपका,

उत्तम भिक्खु

महाबोधि सोसाइटी

४- ए०, कालेज स्क्वेअर

कलकत्ता

अंग्रेजी (एस० एन० १४१८५) की फोटो नकलसे ।