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१६०. पत्र : मीराबहनको

अधूरा जाँचा है

१८ जुलाई,१९२७

चि० मीरा,

कल तुम्हें एक पत्र लिखा है । इसलिए आज ज्यादा कुछ नहीं लिखना चाहता । वालुंजकरको तुमने अपनी स्थिति साफ-साफ बताकर बहुत अच्छा किया और तुम्हारी स्थिति बिलकुल ठोक भी है। तुम्हारे हिस्से जो काम आये उसे करनेमें तुम्हें पूरी आजादी होनी चाहिए। गंगूको भी तुम्हारे दामन से चिपके नहीं रहना चाहिए। उसे ऐसी तालीम देनी चाहिए जिससे वह स्वतन्त्र रूपसे अपना विकास कर सके। लेकिन यह देखते हुए कि वह तुम्हारी देखरेखमें रहना चाहती है, तुम उससे प्रेमपूर्ण व्यवहार करना और जितना कुछ उसे दे सको, देना ।

वहाँ तुम अपने स्वास्थ्य के सम्बन्धमें कोई प्रयोग न करना, बल्कि जो जरूरी हो वही खुराक लेना । जैसा तुम आश्रम में किया करती थीं, उसी तरह जितने फलोंकी तुम्हें जरूरत हो, कहकर मँगवा लिया करना; और यदि कोई तुम्हारे पास फल भेजे तो अपनी जरूरत-भरका रखकर बाकी रसोईघरको, यानी विनोबाके पास भेज दिया करो। ऐसा मत सोचना कि तुम्हें उनकी जरूरत है तो दूसरोंको भी है। दूसरोंको ज्वारकी जरूरत होती है, लेकिन तुम्हें तो नहीं होती। यह बात शायद दुर्भाग्यपूर्ण है कि फल सुस्वादु व्यंजन भी है, और आहार भी है । इतना ही काफी है कि हम सुस्वादु व्यंजनोंको भी दवाकी तरह समुचित मात्रामें लेना सीख लें । फिर तो अगर वे दूसरोंको न मिलें तब भी हम जी कड़ा करके उन्हें खा सकते हैं। वैसे यह स्थिति है बहुत खतरनाक और इसमें जो खतरे हैं वे इतने जाहिर हैं कि उनके बारेमें बतानेकी आवश्यकता नहीं है। लोगोंने तो जरूरतकी आड़ लेकर दुराचार- तक करने में संकोच नहीं किया है। लेकिन, यदि हम अपने-आपपर निरन्तर कड़ी दृष्टि रखें तो इन बुरे परिणामोंका भय रखनेकी कोई जरूरत नहीं। वैसे तो हम जिधर भी मुड़ें उधर खतरे ही खतरे हैं। लेकिन चाहे कुछ भी हो, हमें अपने मूल स्वभाव के अनुसार ही चलना चाहिए ।

यह पत्र, जितना चाहता था उससे बड़ा हो गया है ।

सस्नेह,

बापू

[ पुनश्च : ]

मैं बिलकुल ठीक हूँ ।

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२५१ ) से ।

सौजन्य : मीराबहन