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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं पहुँचाई थी, पर मलकानीका मामला पहुँचा रहा है । इसपर आपको मुझसे यह कहने का पूरा अधिकार है कि यदि आप 'गीता' की उस सीखपर अमल नहीं करते जिसका आप इतना दम भरते हैं और यदि आप बिना किसी ठोस आधारके लोगों- को इतना विश्वास देते हैं तो फिर आपपर कोई तरस क्यों खाये। मैं आपका फैसला सिर-माथे लूंगा और अपनी सफाईमें बस इतना ही कहूँगा कि में अपने मूल स्वभावपर इस तरह एकाएक काबू नहीं पा सकता । कृपया यह पत्र मलकानीको पढ़वा दीजिए।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत एन० वी० थडानी

हैदराबाद ( सिन्ध )

अंग्रेजी (एस० एन० १२६०६) की फोटो नकलसे ।

१६४. पत्र : के० एस० कारन्तको

कुमार पार्क,बंगलोर

१९ जुलाई, १९२७

प्रिय मित्र,

आपका पत्र और पदक प्राप्त हुआ। आपके प्रश्नोंके उत्तर ये रहे:

१. में नहीं समझता कि अपने साहूकारोंकी खातिर बीमा कराना किसीका कोई नैतिक दायित्व हो सकता है। इतना काफी है कि आदमीके शरीरमें जबतक जान रहे तबतक वह अपने साहूकारोंका रुपया चुकाने में एड़ी-चोटीका पसीना एक करता रहे। और सबसे बढ़िया बात तो यह है कि कभी किसी भी कारण कोई कर्ज ही न लिया जाये । बीमेके सम्बन्धमें यह नैतिकता बतलाने के साथ ही मैं आपको आगाह कर दूँ कि सिर्फ मेरी राय जानकर ही आप अपनी बीमा पॉलिसी खारिज मत कर दीजिए। मेरी रायके कारण नहीं, लेकिन अगर आपके मनमें खुद ही ऐसा भाव पैदा हो जाये कि बीमा पॉलिसी लेना गलत है तो दूसरी बात है, लेकिन जबतक बात ऐसी नहीं हो तबतक पॉलिसी बनाये रखने में न तो कुछ गलत है और न कोई पाप ही है। इसलिए में जल्दबाजी में पॉलिसी छोड़ देने से आपको रोकूंगा । बीमा पॉलिसी- जैसी वैध चीजोंको, जिन्हें आम तौरपर बिल्कुल उचित माना जाता है, छोड़ना तभी ठीक होगा जब पहले आपके मन में ईश्वरके प्रति एक निश्चित, जीवन्त आस्था पैदा हो जाये और आप ईश्वरपर ही पूर्णतया निर्भर करने लगें। इस प्रकारके त्यागके पहले और भी अनेक मानसिक परिवर्तन होने जरूरी हैं ।

२. मेरा खयाल है कि आपने विवाह समारोह में शामिल होकर बिलकुल ठीक किया । यह बताता है कि वचन देने में जल्दबाजीसे काम नहीं लेना चाहिए ।