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पत्र : गंगाधर शास्त्री जोशीको

तरह कि एक तो ईश्वरने ऐसे संयोग उत्पन्न किये जिससे मुझे बहुधा अपनी पत्नीसे दूर रहना पड़ा, और दूसरे, उसने अक्सर मेरे सामने ऐसी परिस्थितियाँ खड़ी कीं जिनका सामना करने के लिए भी अपनी विषय-वासनाको नियंत्रित करना जरूरी हो गया। में नहीं समझता कि औसतन एक आदमी अपनी पत्नी के साथ जितनी बार लिप्त होता है, मैं उससे अधिक बार हुआ हूँ । लेकिन इस प्रकारकी तुलना करना ही अपने-आपमें गलत है । वासनामें अपने लिप्त रहनेका औचित्य ठहराने के लिए यह तर्क कभी नहीं देना चाहिए । प्रत्येक व्यक्तिको अपने आचरणके नियम स्वयं ही निश्चित करने चाहिए और फिर पूरी सख्ती के साथ उनके अनुसार ही अपना जीवन चलाना चाहिए। पाप तो आखिरकार मनकी एक स्थिति है । और यह तो सही है कि पापकर्म करनेवालेको प्रकृतिके हाथों अवश्य ही दण्डित होना पड़ेगा, पर पापका ज्ञान न होने- पर वह अपने-आपको दोषी नहीं मानेगा। लेकिन मुझे तो ज्ञान है, इसलिए में अपने पापकर्मको उचित नहीं ठहरा सकता और न अपनेको दोष-मुक्त ही मान सकता हूँ । दूसरा आदमी तो उसे अज्ञानवश करता है, इसीलिए वह अपने-आपको दोषी नहीं ठहराता और समाज भी शायद उसे दोषी नहीं ठहराता । मैं समझता हूँ कि इतनेमें आपकी सभी बातोंका उत्तर आ गया है ।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत सूरजप्रसाद माथुर

अध्यापक

सर हारकोर्ट बटलर हाई स्कूल

हेलेन लॉज,

शिमला

अंग्रेजी (एस० एन० १४१८९ ) की फोटो - नकलसे ।

१६७. पत्र : गंगाधर शास्त्री जोशीको

कुमार पार्क,बंगलोर

१९ जुलाई ,१९२७

प्रिय मित्र,

पत्र लिखने और मेरे प्रश्नोंका उत्तर देने का कष्ट उठाने के लिए आपको धन्यवाद । क्या आप आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धतिकी वर्तमान स्थितिमें भी उसे सस्ती, सरल और कारगर मानते हैं । १८९१ से ही मैं अपने ढंगसे आयुर्वेदकी सफलता के लिए सक्रिय रहा हूँ और जितना मुझसे बन पड़ा मैंने वैद्योंपर पैसा खर्च किया है और अपने मित्रोंको उनपर खर्च करनेको प्रेरित करता हूँ । परन्तु मेरे अपने अनुभव के मुताबिक यह पद्धति न तो सस्ती सिद्ध हो पाई, न सरल और न कारगर ही । कुछ नुस्खे तो बड़े ही पेचीदा किस्म के होते हैं । वैद्योंको भी उतना ही पैसा लेते देखा-सुना गया