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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

किसी भी विद्यार्थीको ऐसा कोई आग्रह नहीं रखना चाहिए कि में इस प्रकारके समारोह में अंग्रेजी में भाषण करूँ अगर मैं अंग्रेजीमें बोलूं तो यहाँ उपस्थित लोगों में से कुछ लोग मेरी बात नहीं समझेंगे। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि मुझे अंग्रेजीसे बड़ा लगाव है । किन्तु यदि हम अपनी मातृभूमिको पर्याप्त सेवा करना चाहते हैं और यदि हमारा उद्देश्य विभिन्न वर्गोंमें ज्यादा आपसदारी और मैत्रीका भाव पैदा करना हो तो वह अंग्रेजी के ज्ञानका प्रचार करके नहीं किया जा सकता । इसीलिए मैं विद्या- थियोंसे एक आग्रह करता हूँ और उनको यही मेरा सन्देश भी है कि विद्यार्थियोंको हिन्दीका ज्ञान बढ़ाना चाहिए और अपने-आपको मातृभूमिको सेवामें लगाना चाहिए। अपने देश के विद्यार्थियोंके साथ दस वर्षोंसे मेरा सम्पर्क है, तभीसे जब में स्वदेश लौटकर आया था। मैं विद्यार्थियोंकी कठिनाइयों, उनके कष्टोंसे परिचित हूँ । मैं लगभग हर रोज उनसे मिलता रहा हूँ। में उनकी कमजोरियाँ भी जानता हूँ । मेरा यह सौभाग्य रहा है कि उनके हृदयमें मेरे लिए स्थान है । वे मेरे सामने अपना हृदय उँडेलनेमें संकोच नहीं करते, बल्कि मुझे अपनी वे बातें भी निस्संकोच भावसे बतला देते हैं जिनको वे अपने माता-पिता तकसे नहीं कहते । मुझे नहीं सूझता कि मैं उनके अशान्त मनको कैसे शान्त करूँ, या उनको क्या सन्देश दूं । उनके दुःखोंसे में दुखी होता हूँ, और उनके कष्टों- को कम करनेके लिए में प्रयत्नशील रहा हूँ । लेकिन इस संसार में सच्ची सहायता यदि कोई कर सकता है तो वह ईश्वर ही है। हमें उसीकी ओर देखना चाहिए। अन्य कोई भी कारगर सहायता नहीं कर सकता । ईश्वरपर अविश्वास करने, उसे न मानने से बढ़कर दूसरा कोई पाप संसारमें नहीं । आजकलके विद्यार्थियोंमें नास्तिकताकी भावना प्रबल होती जा रही है। इस स्थितिको देखकर मुझे हार्दिक संताप होता है । जब भी हिन्दू विद्यार्थियोंसे मेरी मुलाकात होती है, मैं उनको ईश्वरका ध्यान करने, प्रार्थना करने और रामनाम जपनेकी सलाह देता हूँ। वे मुझसे तरह-तरह के सवाल पूछते हैं - जैसे यह कि ईश्वर कहाँ है, राम कहाँ है ? मुसलमान युवकोंसे भेंट होनेपर मैं उनसे 'कुरान शरीफ' पढ़ने, उसकी हिदायतोंके मुताबिक अपनी जिन्दगीको ढालनेकी बात कहता हूँ । वे भी मुझसे इसी तरह के सवाल पूछते हैं । ईश्वरको नकारनेकी ओर ले जानेवाली शिक्षा देश-सेवा या मानवताकी सेवाके काम नहीं आ सकती । आपने अपने मानपत्रमें मेरी देश-सेवाका जिक्र किया है । मैंने जितना कुछ किया है, ईश्वरके प्रति अपना कर्त्तव्य निभानेके भावसे ही किया है । और इसीको मैं सही चीज मानता हूँ । ईश्वर आकाशमें नहीं रहता, न वह स्वर्गमें वास करता है, न कहीं और। वह तो हरएक मानवके हृदय में विराजमान है - मानव चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, ईसाई हो या यहूदी, पुरुष हो या स्त्री ।

मैं मानता हूँ कि गरीबोंकी सेवामें ही ईश्वरकी, देशकी सच्ची सेवा है - उन गरीबोंकी सेवामें, जिन्हें देशबन्धु दासने उचित ही दरिद्रनारायण कहा है। पर ऐसी सेवा सचाईके साथ पूरे हृदयसे की जानी चाहिए। मैं जब विद्यार्थियोंको देखता हूँ तो मेरा हृदय सहानुभूतिसे भर आता है। यदि आपके हृदयमें खोट हो तो फिर न तो कालेज, न पुस्तकालय और न यह वातावरण ही आपकी सहायता कर सकता है, कोई