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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भी चीज आपको सही मार्गपर नहीं ला सकती । शुद्ध हृदय उसी व्यक्तिका है जो दूसरेको कष्ट में देखकर स्वयं भी कष्ट अनुभव करने लगे। हमारे देशमें सौ व्यक्तियों में से दसको दिनमें एक बार भी भोजन नसीब नहीं होता । क्या हमारे देशके विद्या- थियोंको इसकी जानकारी नहीं है ? इसकी जानकारी होते हुए भी वे अपना समय और पैसा सिनेमा और नाटक देखनेमें खर्च करते रहते हैं। क्या यह उचित है ? क्या देश सेवाका यही ढंग है ? कालेजोंमें आप जो शिक्षा पा रहे हैं वह देशके गरीबों के कामकी नहीं है । ऐसी शिक्षा तभी कामकी बन सकती है जब वह लोगोंको पीड़ित मानवता की सेवामें लगा सके। मैं इसीलिए आपसे कहता हूँ कि मानवताकी सेवा ही ईश्वरकी सच्ची सेवा है । इस उद्देश्यको ध्यान में रखकर आपको खादी पहननी चाहिए और रोजाना आध घंटे सूत कातना चाहिए। अपने मानपत्रमें आपने चरखेको फिरसे चालू कराने के मेरे प्रयत्नोंका उल्लेख किया है। लेकिन यदि आप मानपत्रों में मेरी प्रशंसा करने में ही अपने कर्तव्यकी इतिश्री मानें, और सूत कताईको आगे बढ़ाने के लिए स्वयं कुछ भी न करें, तो उसे निरी चापलूसी ही कहा जायेगा । मैं आपका अधिक समय नहीं लेना चाहता । विद्यार्थियोंके कर्त्तव्योंके सम्बन्धमें मैंने अन्यत्र विस्तारसे चर्चा की है।[१] आप उसे पढ़ सकते हैं। मैं ईश्वरसे सदा यही प्रार्थना करता हूँ कि वह देशके युवक वर्गको फूलने-फलनेका वरदान दे, आपको देश-सेवामें प्रवृत्त करे। ईश्वर आप सबका कल्याण करे ।

[ अंग्रेजीसे ]

हिन्दू, २१-७-१९२७

१७२. पत्र : मीराबहनको

स्थाए पता : कुमार पार्क,बंगलोर

२० जुलाई ,१९२७

चि० मीरा,

प्रार्थना के सम्बन्धमें तुम्हारा पत्र मिला । पत्र सुन्दर है । तुमने अपने बारेमें स्वयं सावधानी रखनेकी जो बात कही है, वह भी मुझे पसन्द आई। प्रेमका अर्थ है अपार धैर्य, और यह कि हम खुद अपनी कमजोरियोंके बारेमें जितने ही अधीर हों, अपने पड़ोसियोंकी कमजोरियोंके प्रति उतनी ही सहिष्णुता बरतें। अपने पड़ोसियोंकी कमजोरियाँ तो हमको बड़ी आसानीसे दिखाई पड़ जाती हैं; पर हमें इसकी कोई जानकारी नहीं रहती कि वे उनपर विजय पानेके लिए कितनी कोशिशें कर रहे हैं। खैर, मैंने तुम्हारा पत्र आश्रमको भेज दिया है और छगनलालको लिख दिया है कि प्रबन्ध - मण्डलको उसे पढ़कर सुना दे और सोचे कि उसके सम्बन्धमें क्या कार्रवाई की जा सकती है। एक चीजका ध्यान हमेशा रखना चाहिए: आश्रमकी प्रार्थना सभाएँ

  1. देखिए " भाषण : मैसूरके विद्यार्थियोंके समक्ष, बंगलोर में ", १२-७-१९२७।