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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जितने सच्चे मन और भक्ति भावसे महकती हुई होनी चाहिए वैसी नहीं हो पातीं, इसका वास्तविक कारण मेरी अपनी खामियाँ हैं। इसका एहसास न तुम्हें है और न किसी अन्य व्यक्तिको । प्रार्थनाका माहात्म्य मेरी समझमें काफी उम्र बीत जाने- पर आया, और चूंकि मेरे अन्दर अपने आपको संयमित रखनेकी अच्छी क्षमता है, इसलिए में धैर्यपूर्वक और कष्टसाध्य प्रयत्नोंके द्वारा इधर कुछ वर्षोंसे उसके बाह्य स्वरूपके अनुरूप अपनेको ढालने में सफल हो गया हूँ । परन्तु क्या में उसके आन्तरिक स्वरूप, उसकी भावना के अनुरूप भी अपनेको बना सका हूँ ? मेरा उत्तर है- नहीं । यह सही है कि प्रार्थना के बिना जीवन मुझे बड़ा ही नीरस लगने लगेगा, पर प्रार्थना के समय मैं प्रार्थनामें निहित सन्देश में बिलकुल लीन नहीं हो पाता । लगातार प्रयत्न के बावजूद मेरा मन मनमाने ढंगसे इधर-उधर भटकता रहता है। यदि में महान् अलीकी भाँति अपने-आपको प्रार्थनामें बिलकुल लीन कर सकूं तो फिर तुमको वह शिकायत नहीं रह जाये, जिसका तुमने अपने पत्रमें बिलकुल ठीक ही उल्लेख किया है। अब तुम्हारी समझमें यह बात आ गई होगी कि मैं बाह्य स्वरूपका पालन न करनेवालों, या उसमें ढिलाई करनेवालोंके प्रति भी इतनी सहिष्णुता क्यों दिखाता हूँ । इसीलिए मैं दूसरे लोगोंपर कोई अत्यधिक कठोर अनुशासन थोपनेसे डरता हूँ । मैं अपनी कमजोरी जानता हूँ, इसीलिए उनकी कमजोरियोंके प्रति में सहानुभूति रखता हूँ और आशा करता हूँ कि यदि में इस क्षेत्रमें ऊपर उठ सकूंगा तो वे भी अवश्य मेरे साथ ऊपर उठेंगे। अब तुम पहलेसे ज्यादा अच्छी तरह समझ जाओगी कि मैं इतने सारे लोगोंसे बार-बार क्यों कहता रहा हूँ कि मेरा व्यक्तित्व जैसा मालूम पड़ता है उससे मुझे मत मापो, मुझे तो इस बातसे मापो कि आश्रमके लोगों के जीवन में मेरा व्यक्तित्व कैसा प्रतिविम्बित हुआ है । मेरे व्यक्तित्वको परखने का अचूक और एकमात्र साधन आश्रम ही है -- खासकर तब जब मुझे आश्रमसे अलग रखकर उसे परखा जाये ।

अब किसीसे मिलनेका समय हो चुका है ।

सस्नेह,

बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२५२ ) से ।

सौजन्य : मीराबहन