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१७५. पत्र : जवाहरलाल नेहरूको

कुमार पार्क,बंगलोर

२० जुलाई, १९२७

प्रिय जवाहरलाल,

तुम्हारे दोनों पत्र मिल गये । मेरे पत्र लिखने और तुम्हारा पत्र आनेकी तिथियोंके बीच घटनाएँ बड़ी तेजीसे घटती रही हैं । महमूदाबादके[१] और श्री जिन्नाके जोर देनेपर, सरोजिनीदेवीने मुझसे कहा है कि मैं आगामी वर्षमें अध्यक्ष-पद सँभालने के लिए तुम्हारे पिताजीसे आग्रह करूँ। मैंने उनकी रायसे पूरी असहमति व्यक्त की और उनसे कह दिया कि यदि किसीके अध्यक्ष बननेकी सम्भावना है तो डॉ० अन्सारीके ही, हालांकि वे भी बहुत थोड़ा ही काम कर पायेंगे ।

हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं; और यह बिलकुल स्पष्ट है कि हमें अभी ज्यादा कड़वे घूंट पीनेके लिए तैयार रहना चाहिए। पर मैं इस सारी प्रक्रियाको जरूरी मानता हूँ । राष्ट्र-निर्माणकी प्रक्रियाका यह एक आवश्यक अंग है कि अन्दर भिदा हुआ सारा जहर उभरकर सतहपर आ जाये। यह बिलकुल सच है कि अबतक जो चीज अन्दर-ही-अन्दर घुन लगा रही थी, वह अब ऊपरी परत फोड़कर सतहपर आ गई है और आँखोंसे दिखाई पड़ने लगी है ।

मैंने कल अखबारोंमें तुम्हारी, कमला, कृष्णा और इन्दुकी तसवीरें देखीं; या शायद इन्दु उनमें नहीं थी, मुझे ठीकसे याद नहीं। उनमें लगता था कि तुम्हारा चेहरा और शरीर भी कुछ भर आया है । आशा है कि तसवीरें वास्तविकताके अनुरूप ही होंगी।

मैं अभी शारीरिक दृष्टिसे पूरी तरह चंगा तो नहीं हो पाया हूँ, पर मैंने अपना अधूरा दौरा फिर शुरू कर दिया है। हाँ, उसमें थोड़ा फेर-बदल करके, उसे कमसे कम कष्ट साध्य बना लिया है । में दौरा शुरू न करता, पर चन्देकी रकमें सब जगह रुकी पड़ी थीं और उन जगहोंपर खुद मेरे जानेपर ही हाथमें आ सकती थीं ।

शंकरलाल और अनसूयाबहन मेरे साथ ही हैं और वह जत्था भी, जिसका मैंने पिछले पत्रमें जिक्र किया था ।

अंग्रेजी (एस० एन० १२६११) की फोटो - नकलसे ।

  1. साधन-सूत्र में " मुहम्मदाबाद" दिया है।