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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

साथ लम्बी बातचीत और बहस-मुबाहसा करनेके लिए इतने उत्सुक थ तथा मुझे अपने विचारोंका कायल कर देनेकी उन्हें इतनी दृढ़ आशा थी कि उन्होंने खुद अपने खर्चेसे मुझे इंग्लैंड ले चलने तककी बात कही थी और मुझे विश्वास दिलाया था कि वे मेरे दिमागसे पागलपनकी सारी बातें निकाल देंगे। उन्होंने बहुत गम्भीरतापूर्वक मेरे सामने यह प्रस्ताव रखा था और यद्यपि मैं उसे स्वीकार नहीं कर सका, तथापि उनके इंग्लैंड जानेसे पहले मैंने उन्हें पत्र लिखा था, जिसमें उनसे मिलकर उन्हें उस चरखेका कायल कर देनेका वादा किया था, जिसे वे सिर्फ जला देने लायक ही मानते थे । अतः पाठक अनुमान कर सकते हैं कि उनकी अकस्मात् मृत्युका समाचार सुनकर मुझे कितना दुःख हुआ होगा । पर यह तो ऐसी मृत्यु है, जो हम सबके लिए स्पृहणीय हो सकती है। क्योंकि वे इंग्लैंड किसी आमोद-प्रमोद के लिए नहीं गये थे, बल्कि ऐसे कार्यके लिए गये थे जिसे वे अपना अत्यन्त आवश्यक कर्त्तव्य समझते थे। इसलिए वे तो कर्त्तव्य-क्षेत्र ही में काम आये । भारत के लिए यह हर दृष्टिसे गौरवकी बात है कि सर गंगाराम जैसे व्यक्ति उसके सपूतोंमें से एक थे । दिवंगत सुधारक कुटुम्बी जनोंको मैं अपनी बधाई और समवेदना साथ-साथ भेजता हूँ ।

१९२८ की कांग्रेसके अध्यक्ष

आगामी वर्षके लिए डॉ० अन्सारीका राष्ट्रीय कांग्रेसके अध्यक्षके रूपमें चुना जाना निश्चित ही समझिए। राष्ट्रके किसी भी कोनेमें उनके चुनावका विरोध करनेवाला कोई नहीं है । डॉ० अन्सारी जितने अच्छे मुसलमान हैं, उतने ही अच्छे भारतीय भी हैं । उनमें धर्मान्धताकी भावना होनेकी तो किसीने कभी शंका भी नहीं की है । वर्षातक वे लगातार कांग्रेसके संयुक्त मन्त्री रहे हैं । हालमें उन्होंने साम्प्रदायिक एकता स्थापित करनेके लिए जो प्रयत्न किये हैं, उन्हें सब जानते हैं । और सच तो यह है कि अगर बेलगाँव में मुझे, कानपुरमें श्रीमती सरोजिनीदेवीको और गोहाटीमें श्रीयुत श्रीनिवास अय्यंगारको इस पदके लिए चुननेकी बात न आती, तो इनमें से किसी भी अधिवेशनके अध्यक्ष डॉ० अन्सारी ही चुने जाते । क्योंकि जब ये चुनाव हो रहे थे, तब उनका नाम प्रत्येक आदमीकी जबान पर था। परन्तु कुछ खास कारणोंसे उन अवसरोंपर डॉ० अन्सारीको नहीं चुना जा सका, और अब तो ऐसा लगता है, मानो भाग्यने तब उनका चुनाव इसीलिए नहीं होने दिया था जिससे वे ऐसे मौकेपर आयें जब देशको उनकी सबसे ज्यादा जरूरत हो। अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता की कोई योजना तैयार करनी हो, जो दोनों पक्षोंके लिए स्वीकार्य हो, तो निःसन्देह डॉ० अन्सारी ही उसे कांग्रेसमें मंजूर करवा सकते हैं। मैं इस विचारसे विनम्रतापूर्वक अपनी असहमति प्रकट करता हूँ कि चूँकि कांग्रेस में हिन्दुओंका प्राधान्य है, इसलिए उसका अध्यक्ष भी हिन्दू ही होना चाहिए, जिससे यह कहा जा सके कि उस योजनाको हिन्दुओंने खुले दिलसे मंजूर किया। इसके विपरीत मैं तो यह मानता हूँ कि ऐसी योजनाका शुभारम्भ करनेके लिए इससे अधिक अच्छी पूर्वपीठिका नहीं हो सकती कि देशमें जो विषाक्त वातावरण मौजूद है उसके बावजूद एक ऐसी राष्ट्रीय संस्था, जिसमें हिन्दुओंकी संख्या बहुत ज्यादा है, सर्वानुमतिसे और सम्पूर्ण हृदयसे एक मुसलमानको अपना अध्यक्ष चुने ।