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अभावग्रस्त नगरपालिकाएँ

लिए कोई व्यवस्था ही नहीं होती; लोग गन्दी और बेकार चीजें डालनेके लिए कोई बर्तन नहीं रखते। घनी बस्तियोंमें रहते हुए भी वे मवेशी पालने और उन्हें जैसे-तैसे रखनेमें भी नहीं हिचकिचाते । ग्वाले गायों और भैंसोंके झुंड लेकर आते हैं, और बिना किसी बातकी परवाह किये, जहाँ जी में आता है, उन्हें लेकर बस जाते हैं। मोटे तौरपर कहें तो लोग स्वास्थ्य और स्वच्छता-सम्बन्धी मामूलीसे मामूली नियमोंके पालनकी भी परवाह नहीं करते । न वे उन नियमों का पालन अपने लिए करना जानते हैं और न अपने पड़ोसियों- के लिए। अपने घरके कूड़ेको अपने पड़ोसियोंके अहातोंमें फेंक देना तो आम बात है। अपने मकानोंकी ऊपरी मंजिलोंसे वे पानी या कूड़ा फेंकनमें भी जरा नहीं हिचकिचाते। ऐसा करते हुए वे पास की सड़कोंपर जाने-आनेवालोंका कोई खयाल नहीं करते। वे जहाँ चाहे थूक देते हैं, जहाँ जी में आये वहीं पाखाना-पेशाब कर देते हैं। गाँवोंकी दशा भी इससे अच्छी नहीं है। गाँवके पास पहुँचते ही घूरोंपर हमारी नजर पड़ती है । गाँवके तालाब गन्दे पानीके कुंड होते हैं, और कुओंके पास गन्दगी फेंकना तो एक आम बात है ।

श्रीयुत वल्लभभाई पटेलके इस कथनसे अधिकांश लोग सहमत होंगे कि “ऐसे मामलोंमें सरकारी सहायताकी अपेक्षा रखना गुनाह है ।

मेरा खयाल है कि नगरपालिकाओंमें जो प्रपंच चलते रहते हैं और जिनके कारण सच्चे कार्यकर्त्ताके लिए काम करना लगभग असम्भव हो जाता है, उनका उल्लेख उन्होंने अपने भाषणमें जान-बूझकर नहीं किया है । कुछ अच्छे-अच्छे कार्य- कर्त्ताओंने ऐसी परिस्थितियोंमें काम करनेका प्रयत्न किया, परन्तु अन्तमें उन्हें भी निराश ही होना पड़ा । इलाहाबादमें इन छल-प्रपंचोंने पण्डित जवाहरलाल नेहरूको और पटना में बाबू राजेन्द्रप्रसादको बहुत परेशान किया । देशबन्धु चित्तरंजन दासने ऐसी ही कठिन परिस्थितियोंमें बड़ी मर्दानगीके साथ अपना प्रयत्न जारी रखा, और इस जिम्मेदारीने उनको करीब-करीब तोड़कर रख दिया। बात यह है कि नगरपालिका- के मतदाता में अभी नागरिकताको जिम्मेदारीको भावनाका उदय ही नहीं हुआ । वह किसी भी प्रकार अपने-आपको तमाम नागरिकोंकी भलाईके लिए जिम्मेदार ही नहीं समझता । हमारी शिक्षाप्रणाली ही ऐसी नहीं है कि आदमीको सामाजिक जिम्मे- दारियोंके विषय में समुचित शिक्षा और पदार्थ-पाठ मिले। इसीलिए नगरपालिकाओंके सदस्य भी अपने-आपको किसीके प्रति जिम्मेदार नहीं समझते ।

जिन दिनों असहयोग आन्दोलन पूरे जोरपर था, उन्हीं दिनों मैंने कहा था कि यदि लोग अपनी नागरिक जिम्मेदारीको अच्छी तरह समझने लग जायें तो नगरपालिकाओंका तीन-चौथाई काम तो सरकारकी सहायता और आश्रयके बिना ही हो जाये। मेहमदाबादकी नगरपालिकाके कार्यके तथ्यों और आंकड़ोंके आधारपर मैंने यह साबित किया था कि शहरोंमें रहनेवाले लोग स्वास्थ्य, सफाई आदिकी व्यवस्था कानूनन् स्थापित नगरपालिकाओंके बिना ही अच्छी तरहसे कर सकते हैं।