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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और सो भी एक नगरपालिका इस सबपर जितना खर्च करती है उससे आधे खर्च में ही । मैंने यह भी दिखाया था कि सरकारकी मंजूरीसे कानूनी तौरपर स्थापित नगरपालिकाकी जरूरत तो वहीं होती है, जहाँ नगरपालिकाके सदस्योंसे लोग सहयोग न करते हों, या जब वे अपनी सुधार योजनाओंको लोगोंकी इच्छा न होनेपर भी उनपर जबरदस्ती लादना चाहते हों। मैंने समझाया था कि मेहमदाबाद-जैसे छोटे-से स्थान में तो नागरिकोंको अपनी सड़कोंपर प्रकाशकी व्यवस्था करनेके लिए, टट्टियों और रास्तोंको साफ करनेके लिए तथा पाठशालाओंकी देख-भाल करनेके लिए किसी विस्तृत प्रबन्ध-तन्त्रकी कोई जरूरत ही नहीं है और यदि नागरिक भले हों, अथवा यदि चोर-उच्चकोंसे शान्तिप्रिय नागरिकोंकी रक्षा करनेके लिए वे अपने ही रक्षक दल बना लें, तो नगर-रक्षा के लिए उन्हें पुलिसकी भी कोई जरूरत नहीं हो सकती । जो जनताके सच्चे सेवक हैं, वे नगरपालिकाके सदस्य बनेंगे तो प्रसिद्धि पाने या प्रपंच करने और अपने जरूरतमन्द मित्रों तथा रिश्तेदारोंको नौकरी दिलानेके लिए नहीं, बल्कि जनताकी सेवा करनेके लिए। इसलिए जरूरत इस बातकी है कि कार्यकर्त्ता जनताको नागरिकोंके रूपमें अपने कर्त्तव्य समझायें और ठीक आचरण करनेकी शिक्षा दें। लेकिन, इसका तरीका सिर्फ व्याख्यान झाड़ना नहीं, बल्कि चुपचाप समाजकी सेवा करते जाना होना चाहिए; और सेवा करते हुए उन्हें किसी प्रतिदानकी, यहाँतक कि धन्यवाद कि भी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। इसके विपरीत, उन्हें इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि जब वे जनतासे अपने अन्धविश्वासों या गन्दी आदतोंको छुड़ानेकी कोशिश करेंगे तो उन्हें क्रुद्ध जनताकी घृणाका पात्र बनना पड़ सकता है, बल्कि जनता उनके साथ इससे भी बुरा सलूक कर सकती है। सफाईके कामकी देख-रेख करनेवाले एक ऐसे इन्स्पेक्टरका किस्सा मुझे मालूम है जिसे लोगोंने लगभग मार ही डाला था । उस बेचारेका दोष सिर्फ इतना ही था कि जिस शहरकी सफाईकी देखभाल करनेके लिए उसे वेतन मिलता था, उसकी सफाईकी जिम्मेवारी उसने बड़ी मुस्तैदीसे निभाई और जो लोग एक प्रकारकी अपराधपूर्ण उपेक्षा बरतते हुए सड़कोंको गन्दा किया करते थे, उन सबकी वह बिना कोई भेदभाव किये धर-पकड़ करने लगा था।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, २१-७-१९२७