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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ज्यादा। मैं आपको बता चुका हूँ कि मैं साबरमती में क्या-कुछ कर रहा हूँ। यह काम मुझे उसी ढंगका लगता है जिस ढंगका काम आपने सुझाया है; हाँ, उस अमेरिकी. . .[१] के बिना ही जो आपका आदर्श है, लेकिन मेरा नहीं । उदाहरणके लिए आपने जो कहा है कि जहाँ हम भारतीय लोग एक दानेसे केवल ७० दाने पैदा करते हैं वहाँ जर्मन लोग ७०,००० दाने पैदा करते हैं, उससे क्या बनता - बिगड़ता है ? कारण यह है कि जो बात जर्मनीपर लागू होती है, वह भारतपर लागू नहीं होती और न आगे कई पीढ़ियोंतक लागू होगी। मैं आपकी एक और आदत भी दूर कर सकूँ तो बड़ा अच्छा हो। वह यह कि आपके मनमें जितने भी विशिष्ट और बड़े लोगोंके नाम आते हैं, उन सबको आप बिना सोचे-समझे अपनी दलीलमें घसीट लाते हैं । क्या आप एक वैज्ञानिककी तरह ऐसा नहीं कर सकते कि हर तथ्य की जाँच करके खुद देखें और जो लोग आपके निष्कर्षको पढ़ें, उन्हें खुद ही उस निष्कर्षको व्यवहारमें परख कर देखनेका अवसर दें और इस तरह अपनी बातको लोगोंके गले उतारनेकी कोशिश करें ? निश्चय ही अबतक आपको यह समझ लेना चाहिए था कि ठोस और तथ्यपूर्ण बातोंका समर्थन करनेके लिए बड़े-बड़े व्यक्तियोंके प्रमाणोंकी आवश्यकता नहीं होती और अगर होती भी है तो सिर्फ थोड़ी-बहुत प्रेरणा देनेके लिए होती है । किन्तु जब उनका सहारा ऐसी बातोंका समर्थन करनेके लिए लिया जाता है जिनकी सचाई और महत्त्व सन्दिग्ध होते हैं तो उनसे कोई लाभ होना तो दूर, शायद हानि ही होती है ।

अगर मैं आपकी पत्रिकाका प्रधान सम्पादक होऊँ तब तो नमूने के तौरपर आपके भेजे अंकोंमें मैंने जो कुछ पढ़ा है, उसमें से ९० प्रतिशतको निकाल दूँ और आपसे उसे, उसमें कही गई बातोंको ठोस तथ्य देकर प्रमाणित करते हुए, फिरसे लिखनेको कहूँ और जब आप लिख दें तो शायद फिरसे उसे और भी संक्षिप्त कर दूं। जरा सोचिए तो कि इससे व्यस्त पाठकोंका कितना समय बचेगा, छपाईमें खर्च होनेवाली कितनी स्याही बचेगी, कम्पोजिटरों और प्रूफ-संशोधकोंपर खर्च होनेवाला कितना पैसा बचेगा ? इस तरह छपकर जो सामग्री तैयार होगी, वह वैज्ञानिक कसौटी- पर भी बिलकुल खरी उतरेगी और यदि वह सामग्री सामयिक हुई तो पत्रिकाको प्रतियाँ हाथों-हाथ बिक जायेंगी ।

हृदयसे आपका,


अंग्रेजी (एस० एन० १४१९८) की फोटो - नकलसे ।

  1. यहाँ साधन-सूत्र में स्थान रिक्त है ।