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२००. भाषण : बंगलोरके नागरिक और सामाजिक

विकास संघ में[१]

२४ जुलाई, १९२७

भाइयो,

मैंने आपके संघ कार्यके बारेमें सुना है और इसे सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। आज आपने मुझे अपनी प्रवृत्तियोंको जाननेका मौका दिया है और मुझे यह जानकर बड़ा सन्तोष हुआ है कि उन प्रवृत्तियों में से एक प्रमुख प्रवृत्ति यहाँके आदि कर्नाटक लोगोंकी अवस्थामें सुधार करनेका प्रयत्न करना है। हालांकि अपने नगरको उन्नत बनानेके तरीकोंमें एक मुख्य तरीका इस तरह के संघकी स्थापना भी है, फिर भी मैं आपसे कह सकता हूँ कि अपने आदि कर्नाटक भाइयों और बह्नोंकी अवस्था सुधारनेके कार्यसे बड़ा और कोई पुण्य कार्य नहीं है। लेकिन जैसा कि खुद आपने अपने मानपत्रमें बताया है, आपने इस दिशा में काफी-कुछ किया है, फिर भी अभी बहुत कुछ करना बाकी है । आप अच्छी तरह जानते हैं कि जबतक इस देशमें एक भी ऐसा मन्दिर है जिसके द्वार आदि कर्नाटक लोगोंके लिए बन्द हैं, जबतक आपमें एक भी ऐसा व्यक्ति है जो आदि कर्नाटकोंको भाई मानकर अपने पास नहीं आने देता तबतक यह कार्य कभी भी पूरा नहीं होगा, सम्पन्न नहीं होगा ।

आप बेचारे आदि कर्नाटकोंकी हालतको बेशक अच्छी तरह जानते हैं और यह भी जानते हैं कि गोमांस खाना हिन्दू धर्मका अंग नहीं है । इसके विपरीत, हिन्दू धर्म सभीको गो-रक्षाका आदेश देता है और आप लोगोंने, जो इस बातको अच्छी तरह जानते हैं, क्या गांवों में रहनेवाले अपने इन भाइयोंको यह बात सिखाई है ? हिन्दू धर्मके इस पक्षका ज्ञान न होनेके कारण इन लोगोंमें, जो हिन्दू ही हैं, बुरी आदतें आ गईं, लेकिन आप ऐसा व्यवहार कीजिए जिससे वे समझें कि आप हिन्दू धर्मानुसार उनके जीवनको बेहतर बनाने में सहायता करनेके लिए सचमुच उत्सुक हैं। उन्हें यह बात समझाने के लिए आपको उनके सामने अपना हृदय खोलकर रख देना चाहिए। यदि आप अपने संघके सच्चे सदस्य हैं तो आपको उनके प्रति अपने कर्त्तव्यको निभाना चाहिए ।

आप यह न सोचें कि आपका एक ही कर्त्तव्य है, देश सेवा करना । आपका समाज के प्रति भी कोई कर्त्तव्य है, और ये दोनों एक-दूसरेपर निर्भर हैं । एक कर्त्तव्य- की उपेक्षा करके आप दूसरे कर्त्तव्यका पालन नहीं कर सकते। आप दोनोंको एक-दूसरे- से जुदा नहीं मान सकते। आप यह देखेंगे कि अपने भाइयोंको ऊँचा उठानेमें, अपनी सामाजिक बुराइयाँ दूर करनेमें, अपने समाजको देशकी सच्ची शक्तिका स्रोत बनाने में और साम्प्रदायिक मेल-जोल स्थापित करनेमें, हिन्दुओं और मुसलमानोंमें पूर्ण और

  1. गांधीजी हिन्दीमें बोले थे और गंगाधरराव देशपाण्डेने उसका कन्नड़ अनुवाद करके सुनाया था।