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भाषण : बंगलोरके यूनाइटेड थियोलॉजिकल कालेजमें

देनेवाली है, लेकिन आप तो ऐसी संस्थामें हैं जहाँ आप सेवाकी कला सीख रहे हैं । इसलिए आपको अपने मनमें इसका पूरा आशय खुद ही स्पष्ट कर लेना चाहिए। आप तार्किक पद्धति से इस आधारभूत स्थापना के सारे फलितार्थ निकालिए और फिर देखिए कि आपका निष्कर्ष क्या होता है। अगर आपको उन दीन-दुःखी लोगोंके सिरका बोझ हलका करनेका मेरे सुझाये उपायसे कोई भिन्न उपाय सूझता है तो आप मुझे बताइए । मैं खुद ही एक शिक्षार्थी हूँ, मेरा कोई निजी स्वार्थ नहीं है और जहाँ भी मुझे सत्य दिखाई देता है, उसे ग्रहण करके मैं उसपर आचरण करनेकी कोशिश करता हूँ ।

अमेरिका से एक मिशनरी मित्रने पत्र लिखकर मुझे सुझाव दिया कि जनसाधारणमें चरखेका प्रचार[१] करनेके बजाय मुझे किताबी शिक्षाका प्रचार करना चाहिए। मुझे उनके इस अज्ञानपर तरस आया, विशेषकर इसलिए कि उन्होंने पत्र बहुत निश्छल भावसे हृदयकी प्रेरणावश लिखा था । मैं नहीं समझता कि ईसामसीह भी कोई बहुत पढ़े-लिखे थे और यदि आरम्भिक कालके ईसाइयोंने किताबी ज्ञान हासिल किया तो वह सिर्फ इसी उद्देश्यसे कि वे अपना सेवा कार्य ज्यादा अच्छी तरह कर सकें । लेकिन मेरा खयाल है कि मनुष्य अपना पूरा विकास कर सके, इसकी पहली शर्तके रूपमें नये करार (न्यू टेस्टामेन्ट) में कहीं भी उसके मात्र किताबी ज्ञान हासिल करने पर तनिक भी जोर नहीं दिया गया है। ऐसा नहीं कि मैं किताबी शिक्षाको महत्त्व नहीं देता । मगर यहाँ सवाल इस बातका है कि किसी चीज को कितना महत्त्व दिया जाये। जिस प्रकार अनुपयुक्त स्थान में रखी चीज कूड़ेके अलावा और कुछ नहीं होती, यहाँ शिक्षाकी भी स्थिति वैसी ही है । और जब कभी में लोगोंको किसी अच्छी चीजपर अनुचित जोर देते देखता हूँ तो मेरी आत्मा विद्रोह कर उठती है । किसी बच्चेको अक्षर ज्ञान करानेसे पहले उसे खाना कपड़ा देना और अपना निर्वाह आप कर सकनेकी शिक्षा देना जरूरी है । मैं यह नहीं चाहता कि उसे बड़े ही लाड़-प्यारसे पाला जाये; मैं चाहता हूँ कि वह आत्म-निर्भर बने। इसलिए हमें ऐसा करना है जिससे बच्चे अपने हाथ-पैरोंका इस्तेमाल करना सीख जायें । इसीलिए मैं कहता हूँ कि सेवाकी पहली शर्त यही है कि हम चरखेका सन्देश लोगोंतक पहुँचायें ।

आप लोगोंने खादीको संक्षरण देनेकी बात कही है। मुझे यह अच्छा नहीं लगा । इसकी ध्वनि ठीक नहीं है । आप संरक्षक बनना चाहते हैं या सेवक ? जबतक लोगों में खादीको संरक्षण देनेका भाव रहेगा तबतक वह सनक या फैशनकी ही चीज बनी रहेगी; लेकिन जब लोगोंको उसकी लगन लग जायेगी तब वह सेवाका प्रतीक बन जायेगी । जिस क्षण आप खादीका प्रयोग शुरू करते हैं वास्तवमें उसी क्षणसे सेवा करने लग जाते हैं । पिछले ३५ वर्षोंसे में लगातार गरीबोंके सम्पर्कमें रहा हूँ और इस दौरान मैंने यही देखा है कि सेवा-धर्म अत्यन्त सरल है । इसे कालेजों और स्कूलोंमें सीखनेकी जरूरत नहीं है । इसे तो कहीं भी सीखा जा सकता है । यहाँ फिर वही सवाल उठता है कि किसी चीजको कितना महत्त्व दिया जाये। खुद यह कला तो उस प्रक्रियाके

  1. देखिए " पत्र : डब्ल्यू० बी० स्टोवरको", १६-६-१९२७ ।