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पत्र : ज० प्र० भणसालीको

है। मैं विद्वान् नहीं हूँ और मैंने शास्त्रोंको मूल रूपमें नहीं पढ़ा है, लेकिन मेरी हिन्दू आत्मा इस गति प्रथाके विरुद्ध विद्रोहको भावनासे भर उठती है । फिर भी मैं आपकी संस्थासे सम्बद्ध विद्वानों और शोधकर्त्ताओंसे यह अपेक्षा करता हूँ कि वे मेरे जैसे कार्यकर्त्ताओंको ऐसे प्रामाणिक प्रख्यापनोंसे सज्जित कर दें जिनकी ओर पण्डित लोग भी सहज ही ध्यान दें सकें, और वे कार्यकर्त्ताओंको ऐसे सशक्त और निर्विवाद प्रमाणोंसे युक्त कर दें जिनके आगे कट्टरपन्थियोंका विरोध समाप्त हो जाये । आपकी समितिको यह गौरव और सौभाग्य प्राप्त करना चाहिए कि वह कार्यकर्त्ताओंको अन्यत्र कहीं प्राप्त न हो सकनेवाले प्रामाणिक शास्त्र-वचन उपलब्ध कराकर उन्हें अपना काम करनेमें अधिक सक्षम, अधिक समर्थ बनाये ।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, १८-८-१९२७

२११- पत्र : ज० प्र० भणसालीको

[ २६ जुलाई, १९२७ के पश्चात्][१]

'यंग इंडिया' के लिए तुम्हारा पत्र मुझे मिला। पहले तो इस पत्रको पढ़कर मैं हँसा और उसपर एक छोटी-सी टिप्पणी लिखा डाली तथा उसे 'यंग इंडिया' के लिए टाइप करनेके लिए भेज दिया। किन्तु आज सबेरे जब मैं उठा और तुम्हारे पत्रका विचार आया तो मैं दुःखी हुआ और मेरी हँसी गायब हो गई। कारण, तुम्हारे इस पत्र में मैं अविनय और समझका अभाव देखता हूँ। जिन पुरानी बातोंके विषय में तुमने मतभेद प्रगट किया है वे अब मुझे याद नहीं हैं। हाँ, इतना याद है कि हमारी बातचीत हुई थी किन्तु मैं तो हमेशा यही समझता रहा कि ऐसे हर प्रसंगपर मैं तुम्हें अपनी बात समझा सका था । किन्तु यदि वैसा न हो तो अपने पत्रमें तुमने मुझे जो प्रमाणपत्र दिया है वह ठीक नहीं है और तुम्हारे पत्रसे यह सूचित होता है कि जिस मानसिक निर्बलताका आरोपण तुम मुझमें इस समय कर रहे हो वह तो मुझमें हमारे प्रथम परिचय के समय से ही चली आई है । मेरी मानसिक निर्बलता प्रकाशित हो, इसका तो मुझे कोई दुःख नहीं होता किन्तु मुझे इस बातका दुःख अवश्य है कि मेरी यह निर्बलता तुम मुझसे आजतक छिपाते आये। और मुझे दूसरा दुःख इसका है कि तुम्हारे इस पत्रमें कुछ बातोंको तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। इसके सिवा, आज अहमदा- बादसे तार आया है कि वहाँ बहुत भारी बरसात होनेके कारण अधिकांश काम-काज बन्द पड़ा है और यदि इस बार 'यंग इंडिया' को निकालना सम्भव नहीं हुआ तो पहले भेजी हुई सामग्री ही इतनी ज्यादा है कि अगले सप्ताहका पूरा 'यंग इंडिया' उसीसे भर जायेगा । अतः इतने समयकी व्यवस्था तो प्रकृतिने ही कर दी है कि तुम्हारे जवाबकी राह देखी जा सकती है। तुम मुझपर जल्दीमें लिख डालनेका दोष

  1. साधन-सूत्र में यह पत्र २६ जुलाई, १९२७ की सामग्रीके बाद दिया गया है।