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२१३. पत्र : मीराबहन को

कुमार पार्क,बंगलोर

२७ जुलाई, १९२७

चि० मीरा,

तुम्हारा पत्र मिला। बेशक तुम्हें मालूम ही है कि वर्धा आश्रम साबरमती आश्रमकी ही एक शाखा है। लेकिन वर्धा में अनुशासनकी ओर विशेष ध्यान दिया जाता है, और विनोबा स्वतन्त्र रूपसे इस चीजका विकास कर रहे हैं, इसमें न वे मुझसे कोई सलाह माँगते हैं और न उन्हें मेरी सलाहके कारण उत्पन्न किसी तरह की बाधाका सामना करना पड़ता है। साबरमतीमें जिस तरह परिवर्तन और नये-नये प्रयोग होते रहते हैं उस तरह वर्धा में नहीं होते। इसके अलावा साबरमतीका प्रबन्ध वर्धा आश्रमकी तरह किसी एक ऐसे व्यक्ति के हाथमें नहीं है, जिसपर किसी बाहरी शक्तिका नियन्त्रण न हो। लेकिन वास्तवमें हर दृष्टिसे, साबरमती आश्रम और वर्धा आश्रमको एक और अविभाज्य मानना चाहिए।

लेकिन अब अगले दो महीनोंके लिए तुम्हारा मन हर तरह से मुक्त रहना चाहिए । यहाँतक कि तुम्हें इन स्थानोंके बारेमें भी नहीं सोचना चाहिए। इन दो महीनों में तुम्हारा एकमात्र उद्देश्य अपने कार्य और स्वास्थ्यकी ओर ध्यान देना है ।

मुझे भणसालीने अन्तिम चेतावनी भेजी है कि वह ६ अगस्त से लम्बा उपवास करनेका इरादा रखता है । मैंने उसे इसके विरुद्ध आगाह कर दिया है और उससे अनुरोध किया है कि वह कमसे कम तबतक उपवास शुरू न करे जबतक मैं आश्रम आकर उससे इस विषयपर बातचीत नहीं कर लेता । पत्र आज जा रहा है। उसके उपवासके इरादे और वह जैसी सूरत बनाये रहता है, उसके बारेमें तुम्हारे विचारका उल्लेख भी पत्रमें कर दिया है। मुझे उम्मीद है कि वह मेरा अनुरोध मान लेगा ।

तुम रोज क्या खाना खाती हो ?

सस्नेह,

बापू

श्रीमती मीराबाई

सत्याग्रहाश्रम

वर्धा

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२५५ ) से ।

सौजन्य : मीराबहन