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२१४. पत्र : फैन्सिस्का स्टैंडेनेथको[१]

स्थायी पता : साबरमती आश्रम

२७ जुलाई, १९२७

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला । मुझे खुशी है कि मैंने आपके लिए जिन मित्रोंको[२] परिचय- पत्र दिया था, उनसे आपका इतना निकटका सम्बन्ध बन गया है । मैं उन्हें अपने धनी-मानी परिचितोंमें सबसे नेक और भले लोग मानता हूँ ।

आपके पत्रसे मुझे ऐसा लगता है कि आप सिर्फ रुईसे सूत कातनेको ही कताई मानती हैं। लेकिन ऐसी बात नहीं है। ऊन कातना भी महत्त्वपूर्ण है, हालांकि रुईसे कातनेका कोई मुकाबला नहीं है। कारण यह है कि करोड़ों लोग मैदानी इलाकोंमें ही रहते हैं और उन्हें बहुत कम ऊनी वस्त्रोंकी जरूरत पड़ती है । जब भी बने, आप बेशक रुईसे कातिए, लेकिन रुईके अभाव में उनसे कातनेमें क्या हर्ज है ? और फिर ऊन कातकर आप अपने इस्तेमालके लिए कपड़ा बुनवा सकती हैं। आपको जानना चाहिए कि मैं खुद बिना किसी दुविधाके हाथ-कते उनका इस्तेमाल करता हूँ। अभी यह पत्र बोलकर लिखवाते समय भी में ऊनी कम्बल ओढ़े हुए हूँ, जो हाथ कती उनसे बुना हुआ है। जहाँ मैं स्वास्थ्य लाभ कर रहा हूँ, वहाँ आजकल भी अच्छी सर्दी पड़ती है। मैं स्वामी आनन्दसे आपको कुछ हाथ-कती ऊन और एक कम्बल भी भेजने को कह रहा हूँ । कम्बलका इस्तेमाल आप ओढ़नेके लिए भी कर सकती हैं, या चाहें तो उससे ब्लाउज वगैरह भी बना सकती हैं ।यह मुलायम तो नहीं होगा, लेकिन तब आप उससे बने ब्लाउज वगैरह के नीचे कोई मुलायम कपड़ा पहन कर उसे ऊपरसे पहन सकती हैं।

मैं देखता हूँ कि आप संस्कृत और अन्य भाषाओंके अध्ययन में बहुत लगन और धैर्य के साथ जुटी हुई हैं ।

जब भी आपके पास कुछ फाजिल पैसा हो, तब आप दोनों, थोड़े दिनोंके लिए ही सही, भारत आइए। अपनी आँखों देखिए कि यहाँ क्या-कुछ हो रहा है । शायद तभी आपको यहाँकी सच्ची तसवीर देखनेको मिलेगी और इससे आपके मनमें आम तौरपर भारत के प्रति और खास तौरपर मेरे तथा आश्रमके प्रति जो कतिपय अतिरंजित धारणाएँ हो सकती हैं, आप सम्भवतः उन्हें भी सुधार सकें। मैं चाहता हूँ कि सारी चीजोंको उनके असली रूप में या कमसे कम निकटसे देखने में वे आपको

  1. फ्रेन्सिस्का स्टेंडेनेथके २६ जुलाई के पत्रके उत्तरमें।
  2. रणछोड़लाल अमृतलाल ठक्कर और भोगीलाल ठक्कर ।