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२२०. पत्र : एस० वी० कोजलगीको

कुमार पार्क,बंगलोर
२७ जुलाई, १९२७

प्रिय मित्र, देखता हूँ, मेरे पत्रसे आपको दुःख पहुँचा है। लेकिन मैं नहीं जानता कि ऐसी स्थिति में मैं और कर भी क्या सकता था । आपने जो श्लोक उद्धृत किया है, वह बिलकुल ठीक है । नारीको अपने पतिके वक्षस्थलसे लगकर गौरवका अनुभव होना ही चाहिए। अपने समीप खड़े उस अचल वृक्षके प्रति लताकी निष्ठा भी होनी ही चाहिए जो उसकी रक्षा करता है, और उससे लिपटकर गौरवका अनुभव होना भी स्वाभाविक ही है । और अगर मैं चरखा संघके नेता अथवा अध्यक्षके रूपमें अपने उन साथी कार्यकर्त्ताओंपर, जिन्हें मैं हमेशा साथ पाता हूँ और जो अपने सुपुर्द किये गये कार्यको करनेके लिए सदा तत्पर रहते हैं, विश्वास नहीं करता तो मैं अपने कर्तव्य के प्रति द्रोह करता हूँ । आपके द्वारा उद्धृत श्लोकमें कविने जिन तीनोंके[१] नाम लिये हैं, उनके अस्तित्व के लिए क्या यह अनिवार्य शर्त नहीं है ? मेरे निकट आइए, मुझसे प्रणय-याचना कीजिए और फिर देखिए कि मैं किस तरह आपकी वफादार पत्नी बन जाता हूँ । आप मेरे समीप अचल वृक्षके समान बनकर देखिए, फिर मैं सहज ही आपसे लताकी तरह लिपट जाऊँगा । आप अपने-आपको खादी-कार्य में लीन कर दीजिए और फिर मेरी नकेल पकड़कर आप मुझे चाहे जिस ओर ले जाइए। लेकिन यदि आप इन तीनोंमें से एक भी बात नहीं करते तब तो मैं तटस्थ- भावसे आपको एक ऐसे खरे आलोचकके रूपमें ही स्वीकार करूँगा, जिसका काम समाचारपत्रोंमें स्पष्टीकरण देते फिरना है । आप तब भी मेरे मित्र और साथी कार्यकर्ता बने रहेंगे और मैं आपसे ऐसी सेवाकी अपेक्षा करूँगा, जो मेरे विचारसे, आप कर सकते हैं ।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी (एस० एन० १९७९०) की माइक्रोफिल्मसे ।

  1. पंडिता वनिता लता ।