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२२८. पत्र : एच० जी० पाठकको

कुमार पार्क, बंगलोर
२९ जुलाई, १९२७

प्रिय हरिभाऊ,

आपका पत्र मिला। हिन्दीमें न लिखनेके लिए क्षमा माँगनेकी कोई आवश्यकता नहीं। लेकिन अबसे छ: महीने बाद आपको हिन्दीमें लिखते देखकर मुझे निस्सन्देह बड़ी प्रसन्नता होगी।

यहाँ अ० भा० च० सं०की परिषद्की जो बैठक हुई थी, उसकी किसी कार्य- वाही में मैंने भाग नहीं लिया । मैंने वह प्रस्ताव भी नहीं देखा जिसकी प्रति आपने मुझे भेजी है। मैंने जमनालालजी और परिषद् के अन्य सदस्योंको वचन दिया था कि जबतक वे खुद ही मुझसे नहीं कहेंगे, तबतक उनके किसी भी काममें दखल नहीं दूंगा ।

आपको प्रस्तावमें जो बात उचित प्रतीत नहीं होती, उसके लिए मैं चाहूँगा कि आप जमनालालजी अथवा श्री बैंकरको लिखें। लेकिन मैं आपकी इस बातसे पूर्णतया सहमत हूँ कि अनावश्यक प्रतिबन्धोंके द्वारा कार्यकर्त्ताओंके रास्तेमें बाधा नहीं डालनी चाहिए। मैं नहीं समझता कि परिषद् नवयुवकोंकी राहमें कोई बाधा डालना चाहती है।

अब २,५०० रुपये के कर्जके सम्बन्धमें । मैं नहीं समझता था कि इस रकमका उपयोग 'गांधी शिक्षणमाला' खरीदने के लिए नहीं, बल्कि श्री कानिटकरके कर्जकी रकम अदा करनेके लिए किया जायेगा, और ये पुस्तकें ऋणकी रकमके एवज में बन्धक रखी जायेंगी। मैंने यह भी नहीं सोचा था कि पुस्तकोंकी बिक्रीसे जो मुनाफा होगा, वह अ० भा० च० सं०को दे दिया जायेगा । जहाँतक हमारे बीच हुई बातचीतकी मुझे याद आती है, मैंने ऐसा कुछ तो नहीं कहा था जिससे यह लगे कि मेरे मन में इससे किसी तरहका मुनाफा कमानेका खयाल था । लेकिन यदि कुछ मुनाफा होता भी है तो मुनाफेकी वह रकम 'स्वराज्य' की व्यवस्थाके लिए खर्च की जा सकती है । श्री कानिटकरको आखिरकार 'स्वराज्य' के हितका उतना ही खयाल है, जितना कि किसी अन्य चीजका । आप चाहें तो जमनालालजी के साथ अपने पत्रव्यवहारमें इस पत्रका उपयोग कर सकते हैं । और यदि आवश्यक हुआ तो परिषद्की अगली बैठक में प्रस्ताव में वैसा परिवर्तन कर दिया जायेगा। लेकिन मैं नहीं समझता कि आपके उद्देश्योंके लिए प्रस्तावके वर्तमान रूपमें कोई परिवर्तन करनेकी जरूरत है ।

पुस्तककी प्रतियोंको " जमानत " कहने के बजाय उन्होंने सौदेको “बिक्री” कहा है, लेकिन ये दोनों बातें एक ही हैं और लाभका सवाल तो बहुत दूरकी बात है ।