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२३०. मिशनरियोंके साथ बातचीत[१]

[२९ जुलाई, १९२७][२]

गांधीजीने बातचीत शुरू करते हुए कहा कि दक्षिण आफ्रिकामें मैं मिशनरियों के निकट सम्पर्क में आया और तभीसे में उनका मित्र रहा हूँ ।

लेकिन मित्र होते हुए भी मैं बराबर उनकी आलोचना करता रहा हूँ । लेकिन मेरी आलोचनाका उद्देश्य सिर्फ उनकी टीका-टिप्पणी करते रहना, उनमें ख़्वाहमख्वाह दोष निकालते रहना नहीं रहा है । उनकी आलोचना भी मैंने इसीलिए की है कि मुझे लगा कि उनकी भावनाओंको ठेस पहुँचानेका खतरा उठाकर भी यदि मैं अपने दिलकी बात साफ-साफ कह देता हूँ तो मैं मैत्रीके धर्मका और भी अच्छा निर्वाह करूँगा । उन्होंने मुझे कभी ऐसा अवसर नहीं दिया, जब मुझे लगा हो कि मेरी बातोंसे उन्हें चोट पहुँची है; और मेरी आलोचनापर उन्होंने किसी प्रकारकी नाराजगी तो कभी दिखाई ही नहीं ।

इसके बाद गांधीजीने भारतके मिशनरियोंके समक्ष दिये अपने प्रथम भाषणका उल्लेख किया, जिसका विषय स्वदेशी था । उन्होंने कहा कि इस बातको अब बारह वर्ष हो चुके हैं और इस बीच बहुत सारी गलतफहमियाँ भी दूर हो गई हैं।

इन चन्द प्रारम्भिक शब्दोंके बाद अब मैं आपके परमार्थ कार्य और अपने कामके बीच जिस भेदको स्पष्ट करना चाहूँगा वह यह है कि जहाँ में अपने-अपने धर्ममें लोगोंके विश्वासकी जड़को मजबूत कर रहा हूँ, वहाँ आप उसे कमजोर बना रहे हैं। मैंने बराबर यही माना है कि आप जिन लोगोंकी सेवा करने जाते हैं, यदि उनके धार्मिक विश्वासोंको - उन विश्वासोंको, जो चाहे जितने अपरिष्कृत हों किन्तु उनके लिए बड़े मूल्यवान हैं - स्वीकार करके चलें तो आपके कामका रूप और भी निखर आये । मेरी बात के मर्मको ठीक तरहसे ग्रहण करनेके लिए शायद यह जरूरी है कि आप 'बाइबिल ' के सन्देशको, आज हमारे चारों ओर जो कुछ हो रहा उसे ध्यानमें रखते हुए, नये दृष्टिकोण से समझें । शब्द तो वही हैं, लेकिन उनके अर्थ बराबर अधिक विस्तृत, अधिक गहरे होते चले जाते हैं; सम्भव है कि नई खोजोंको - मेरा मतलब आधुनिक विज्ञानकी खोजोंसे नहीं, बल्कि अध्यात्मकी दुनियामें प्रत्यक्ष अनुभवोंके रूपमें हुई उन खोजोंसे हैं जो सभी धर्मोके लिए समान रूपसे ग्राह्य हैं- ध्यान में रखकर बाइबिल की बहुत-सी बातोंकी नये सिरेसे व्याख्या करना आवश्यक हो । सेंट जॉन के बुनियादी वचनोंको नये दृष्टिकोणसे पढ़ने, उनकी नये सिरेसे व्याख्या करनेकी जरूरत

  1. महादेव देसाई के लिखे इसी शीर्षक लेखसे
  2. महादेव देसाईके " साप्ताहिक पत्र " से