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मिशनरियोंके साथ बातचीत

है । में ऐसा मानने लगा हूँ कि हम मानव-प्राणियोंकी तरह ही शब्दोंके अर्थका क्रमशः विकास होता रहता है । उदाहरणके लिए सबसे अधिक अर्थगर्भित शब्द ईश्वरको ही लें । उसका अर्थ हम सबके लिए एक ही नहीं है । वह व्यक्ति के अनुभवपर निर्भर करता है, प्रत्येक व्यक्ति के निजी अनुभव के अनुसार बदलता रहता है । संथालोंके लिए ईश्वरका अर्थ कुछ और है और उनके पड़ोस में रहनेवाले रवीन्द्रनाथ ठाकुरके लिए, कुछ और। हो सकता है, ईश्वर और हिन्दू धर्मका जो अर्थ में लगाता हूँ, वह सनातनियोंको स्वीकार न हो। लेकिन, स्वयं ईश्वर परम सहिष्णु है, उसके नामपर चाहे कोई कुछ करे, उसे चाहे जितने गलत रूपमें पेश किया जाये, वह सब कुछ बरदाश्त करता है। यदि हम सभी धर्मोके लोगोंके आध्यात्मिक अनुभवोंका समन्वय कर दें तो उसका जो परिणाम निकलेगा, वह मानव-मनकी उस निगूढ़तम आकांक्षाको तृप्त कर सकेगा। ईसाई धर्म १९०० वर्ष पुराना है, इस्लाम १३०० वर्ष; लेकिन दोनों में से किसीकी सम्भावनाओंके बारेमें कोई क्या जानता है ? मैंने वेदोंको मूल रूपमें नहीं पढ़ा है, लेकिन उनके सारको ग्रहण करनेका प्रयत्न किया है, और यह कहने में मुझे कोई हिचक महसूस नहीं हुई है कि भले ही वे १३,००० वर्ष पुराने हों - या इतना ही क्यों, हो सकता है कि वे लाखों वर्ष पुराने हों, क्योंकि अनादि ईश्वरके वचन भी अनादि ही हैं - किन्तु इनका अर्थ भी हमें अपने अनुभवके प्रकाशमें ही लगाना चाहिए। हमारी समझनेकी शक्तिकी कुछ सीमाएँ हैं, इसीलिए हमें ईश्वरकी शक्तिको तो उन सीमाओंसे बँधा नहीं मानना चाहिए। इसलिए भारतको कुछ सिखाने की इच्छासे आनेवाले आप लोगोंसे मैं कहूँगा कि आप इससे कुछ ग्रहण किये बिना इसे कुछ दे नहीं सकते, यहाँसे कुछ सीखे बिना इसे कुछ सिखा नहीं सकते । अगर आप यहाँ अपने अनुभवोंकी निधि लुटाने आये हैं तो इस देशके पास जो कुछ है, उसे ग्रहण करने के लिए तो अपने हृदय के द्वार खोलिए । मैं विश्वास दिलाता हूँ कि यदि आप ऐसा करेंगे तो आपको निराश नहीं होना पड़ेगा और न उसका यही मतलब होगा कि आपने 'बाइबिल 'के सन्देशको गलत समझा है।

इसके बाद कुछ दिलचस्प प्रश्नोत्तर हुए,जिन्हें मैं संक्षेपमें नीचे दे रहा हूँ

प्र० : तब फिर हम कर क्या रहे हैं ?हम ठीक काम तो कर रहे हैं न?

उ० : हाँ, ठीक काम ही कर रहे हैं, लेकिन गलत तरीकेसे । मैं चाहता हूँ कि आप लोगोंकी अपनी-अपनी धार्मिक श्रद्धा और विश्वासकी जड़को कमजोर करने के बजाय उसे बल दीजिए। मैसूर के दीवानने मैसूर विधान सभाके अपने अभिभाषण में कहा था कि आदि कर्नाटकों को बेहतर हिन्दू बनाना चाहिए। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा कि आदि कर्नाटक हिन्दू समाज के अंग हैं। इसी तरह मैं आप लोगोंसे कहूँगा कि आप भी हमें बेहतर हिन्दू, अर्थात् आज हम जैसे हैं, उससे श्रेष्ठ मनुष्य बनाइए । किसीके ईसाई हो जानेपर भी उसके परिवेशसे उसका सम्बन्ध क्यों तोड़ दिया जाना चाहिए ? बचपन में मैंने लोगोंको यह कहते सुना था कि ईसाई होनेका मतलब तो यह होता है कि हमारे एक हाथमें ब्रांडीकी बोतल हो और दूसरेमें गोमांस । अब स्थिति कुछ सुधर गई है, लेकिन आज भी किसीको ईसाई बनानेका मतलब