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२३५. भाषण : चामराजेन्द्र संस्कृत पाठशाला में

बंगलोर
३० जुलाई, १९२७

मुझे संस्कृतमें मानपत्र देकर आपने मेरा जो सम्मान किया है, उसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। मैं मानता हूँ कि हरएक हिन्दू लड़के व लड़कीको संस्कृत अवश्य सीखनी चाहिए और हरएक हिन्दूको संस्कृतका इतना पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए जिससे वह अवसर आनेपर संस्कृत में अपने विचार प्रकट कर सके ।

मुझे यह सुनकर बहुत दुःख हुआ कि मैसूर राज्य में कुछ ऐसे पंडित हैं जो शूद्रों और पंचमोंको संस्कृत सिखाने में हिचकते हैं। मैं नहीं जानता, यह मान्यता कहाँतक शास्त्र- सम्मत है कि शूद्रोंको संस्कृत और इसलिए वेदोंको पढ़नेका अधिकार नहीं है । लेकिन एक सनातनी हिन्दूके नाते मेरा यह निश्चित मत है कि यदि शास्त्रोंमें इसके लिए कोई प्रमाण हो तो भी शास्त्रोंके शब्दार्थके पीछे पड़े रहकर हमें अपने धर्मकी आत्माका हनन नहीं करना चाहिए। मनुष्य के समान शब्द के अर्थका भी विकास होता रहता है, और यदि कोई वैदिक वचन भी विवेकबुद्धि तथा अनुभवके विपरीत पड़ता हो तो उसे त्याग ही देना चाहिए। इस तरह, जहाँतक मैं शास्त्रोंको समझता हूँ, मेरा खयाल है कि आज हम अस्पृश्यताको जिस रूप में समझते हैं, वैसी अस्पृश्यता के लिए उनमें कोई प्रमाण नहीं है, और भारत के विभिन्न भागों के अस्पृश्योंके बारेमें मेरा जो अनुभव रहा है उससे तो मैंने यही जाना है कि यदि व्यक्तिशः तुलना की जाये तो बौद्धिक अथवा नैतिक, किसी भी दृष्टिसे 'अस्पृश्य' लोग अपने 'स्पृश्य' भाइयोंसे उन्नीस नहीं पड़ते । मैं दलित वर्ग के ऐसे अनेक लोगोंको जानता हूँ जो हममें से किसीसे भी कम स्वच्छ और नैतिक जीवन नहीं जी रहे हैं, और मैंने ऐसे आदि कर्नाटक लड़कोंको भी देखा है जो संस्कृत श्लोकोंको पढ़ने और उनका सस्वर पाठ करने में यहाँके किसी भी ब्राह्मण लड़के या लड़कीसे कम नहीं है। इसलिए मैं इस बात के लिए आपका आभारी हूँ कि आपने मुझ जैसे क्रान्तिकारी विचार रखनेवाले व्यक्तिको अपने यहाँ बुलाया और केवल बुलाया ही नहीं, बल्कि उसे मानपत्र भेंट किया और उसमें उसके उन विचारोंका अनु- मोदन किया। बहुत से ब्राह्मणोंको तकली चलाते देखकर मुझे बहुत खुशी हुई है, लेकिन मैं चाहता हूँ कि आप सिर्फ जनेऊ बनानेके लिए ही तकली न चलायें । यज्ञोपवीत तो तकलीपर कते सूत से बनाया ही जाता रहेगा, लेकिन आप अपने कपड़े भी चरखेपर कते सूत से ही बनायें। मैं सच कहता हूँ, जब मैने लड़कों और लड़कियोंको विदेशी कपड़े पहन- कर धर्मग्रन्थोंके श्लोकोंका उच्चार करते देखा तो मुझे बहुत दुःख हुआ । अगर कमसे- कम कहूँ तो यह बात मुझे बिलकुल असंगत जान पड़ी। बाहरी आचार-व्यवहार किसी भी तरह धर्मके असली तत्त्व नहीं हैं, लेकिन ये आचार-व्यवहार बहुधा उसके आन्तरिक रूपके दर्पण हुआ करते हैं, और इसलिए जब कभी में किसी संस्कृत कालेज में या ऐसी संस्थामें जाता हूँ जहाँ आर्य संस्कृतिकी शिक्षा दी जाती है तो मैं यही आशा करता हूँ