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पत्र : मीराबहनको

दे भी दिये हैं, ऐसा उनका तार है । मेरा अनुरोध है कि सब सज्जन उसमें जितना दे सकते हों दें। जहाँ आसमान ही फट पड़ा हो वहाँ थेगली लगाने से क्या होगा तथापि यदि सब लोग यथाशक्ति मदद देंगे तो जनताको उससे कुछ सान्त्वना अवश्य मिलेगी । समिति जिनतक पहुँच सकेगी उनतक अवश्य पहुँचेगी। अभी तो किसका कितना और क्या नुकसान हुआ है इसका अनुमान भी वह शायद ही लगा पाई होगी। ये पंक्तियाँ लिखते समय - एक अगस्त के दिन - इस विपत्ति से सम्बन्धित जिस ब्योरेका ज्ञान मुझे नहीं है वह इनके प्रकाशित होनेतक तो प्रकट हो ही चुकेगा । उसे समझकर जिन्होंने अबतक कुछ नहीं दिया वे इसमें पैसा दें और इस सहायता - कार्य में अपना योगदान दें ।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, ७-८-१९२७

२३७. पत्र : मीराबहनको

१ अगस्त [ १९२७ ]

चि० मीरा,

तुम्हारा हिन्दीमें लिखा हुआ सुन्दर पत्र मिला । तुम्हारी समय तालिका अत्यन्त व्यस्ततापूर्ण जान पड़ती है। अलग-अलग कार्योंके लिए निर्धारित घंटोंके बीच तनिक भी अवकाश नहीं रखा गया है। मेरा खयाल है, सभीपर यही बात लागू होती है । अगर आदमी एकाग्रचित्त रहे, व्यर्थ ही परेशान न हो और बेकारकी बातों अथवा विचारों में समय नष्ट न करे तो ऐसे कार्यक्रमपर अमल किया जा सकता है ।

तुम जानती ही हो कि इस समय गुजरात बहुत संकटमें है । वर्षासे बहुत नुकसान हुआ है, और आश्रम भी इससे अछूता नहीं रहा। मुझे एक तार भी मिला है, जिसमें बताया गया है कि कान्तिलाल, जो हिसाब-किताब देखता था, नदीमें डूब गया । यह आत्महत्याका मामला जान पड़ता है । मुझे अभीतक निश्चित ब्योरा नहीं मिला है। मैं कलसे चार दिन तक बंगलोरसे बाहर रहूँगा; शुक्रवारकी शामको लौटूंगा । अभी बस इतना ही ।

सस्नेह,

बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू ० ५२५६ ) से ।

सौजन्य : मीराबहन

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