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२३८. पत्र : वी० एस० श्रीनिवास शास्त्रीको

बंगलोर
१ अगस्त, १९२७

प्रिय भाई,

दक्षिण आफ्रिका से लिखा आपका पहला पत्र पाकर बहुत प्रसन्नता हुई । पत्रके आशापूर्ण स्वरसे मुझे बड़ा ढाढ़स बँधता है ।

देखता हूँ, ट्रान्सवालके कारण आपको कुछ परेशानी हो रही है। लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि वहाँके लोग अन्ततः आपकी बात जरूर सुनेंगे।

सामाजिक कार्यकर्त्ताओंके लिए आपकी अपीलपर मेरा ध्यान गया है । यहाँसे तो आपको ज्यादा कार्यकर्त्ता नहीं मिलेंगे। मुझे मालूम है कि देवधर एक दल भेजने की, बल्कि खुद ही उसे लेकर जानेकी भी सोच रहे हैं । लेकिन मेरा अपना खयाल तो यह है कि यह मुख्यतः स्थानीय कार्यकर्त्ताओंका काम है । लेकिन, चाहे यह काम स्था- नीय कार्यकर्त्ता करें, या यहाँसे बुलाये गये कार्यकर्त्ता, यह काम करने लायक है और इसे करना ही है । इस सारी शरारत के लिए भारत सरकार, नेटाल सरकार और बागान मालिक कुछ कम दोषी नहीं हैं। एक बार एक तरहका वातावरण बन जानेपर उसकी जगह फिर दूसरी तरहका वातावरण तैयार करना बहुत कठिन होता है। भगवान् आपको सब कुछ करनेकी शक्ति प्रदान करे ।

अपने स्वास्थ्यका ध्यान रखिएगा ।

एन्ड्र्यूजने आपके खर्चके बारेमें मुझे तार[१] भेजा था । उसके सम्बन्धमें यहाँ क्या-कुछ किया गया, यह सब आपको बताना बेकार होगा। लेकिन मुझे पता चला है कि आपको सारी आवश्यक सहायता मिलेगी। इस सम्बन्ध में मुझे तो कोई चिन्ता नहीं रह गई है । जहाँतक आपका सम्बन्ध है, आप किस ढंगसे रहते हैं, इससे कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है । प्रभाव तो आपकी अपनी आन्तरिक शक्तिका ही होगा और उस शक्तिका प्रभाव दरअसल होने भी लगा है ।

मेरा स्वास्थ्य ठीक चल रहा है और लगभग अक्टूबर के अन्ततक मेरे दक्षिण भारत में ही रहने की सम्भावना है। यह पूरा महीना तो मैसूरमें ही लग जायेगा; उसके बाद ही यहाँसे निकल पाऊँगा । सस्नेह,

आपका,
मो० क० गांधी

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ९२२९) से।

सौजन्य : एस० आर० वेंकटरमण ।

  1. देखिए “पत्र : जे० बी० पेटिटको ", ५-७-१९२७।