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२३९. पत्र : हिन्दी साहित्य सम्मेलनके मन्त्रीको

बंगलोर
१ अगस्त, १९२७


श्रीमान् मन्त्री महोदय,

पंडीत हरिहर शर्माको आपने भेजा हुआ श्रा० कृ० १०[१] का पत्रकी नकल मुझको भेजी गई है । शर्माजी रामेश्वरम् गये हैं ।

आपके तार[२] और पत्रके उत्तरमें मैंने कई दिनोंके पूर्व निवेदन कीया है, उसका आपके तरफसे कुछ प्रत्युत्तर न होनेके कारण में समझता हुं आपको वह उत्तर नहि मीला होगा ।

यदि वह उत्तर नहिं मीला है तो आपको फिर निवेदन करूं। जो कुछ परिवर्तन मद्रास हिंदी प्रचार कार्यालय में हुआ है वह मेरी सम्मतिसे और जाहेर में हुआ है। इसमें शर्माजीका कुछ दोष नहि है । शर्माजीको आप अवश्य आपका नौकर न समझें । कार्यालयकी मालकीके बारेमें आप और मेरे बीचमें बड़ा मतभेद है । यह बात पुराणी है । आपको मैंने वर्ध[[] में भी इस बातका स्पष्टीकरण कर दीया था । यदि आप उचित समझे तो इस मतभेदका निर्णय पंच द्वारा हो सकता है। यदि पंचके पास जाने में सम्मेलनका अहित समझे तो आप जो कुछ कोरटके इलाज लेना उचित समझे मेरे पर ही लेनेकी कृपा करें।

आपका,

एस० एन० १२७७७ की माइक्रोफिल्मसे ।

२४०. पत्र : रामदास गांधीको

मौनवार, १ अगस्त, १९२७

चि० रामदास,

देवदासको लिखा तुम्हारा पत्र मैंने पढ़ा है। कान्ति और रसिकके बारेमें तुम जो देखो वह मुझे लिखना, किन्तु मैं चाहता हूँ कि तुम उसकी चिन्ता बिलकुल न करो। हमें ऐसे कामकी तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिए जो हमारे जिम्मे न हो फिर चाहे वह महत्त्वपूर्ण या निजी ही क्यों न हो । धर्मकी, 'गीता' की यही शिक्षा है । या तो किसी कामको निजी माना ही न जाये या फिर जो काम हमारे हाथमें है उसीको निजी मानकर उसमें तन्मय हो जायें। यदि हमारे पिता हमसे दूर हों

  1. तदनुसार २३ जुलाई, १९२७ ।
  2. ६ जुलाई, १९२७ ।