पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/३४२

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२५७. पत्र : एच० हारकोर्टको[१]

स्थायी पता : साबरमती आश्रम
४ अगस्त, १९२७

प्रिय मित्र, आपके स्नेहपूर्ण पत्रके लिए धन्यवाद । आप शायद नहीं जानते कि जो न्याया- धीश मेरे मुकदमेकी सुनवाई कर रहा था, उसके सामने मैंने वही विचार पेश किये थे, जो आपने व्यक्त किये हैं, अर्थात् यह कि यदि मेरे दृष्टिकोणको स्वीकार नहीं किया गया तो सरकारको मुझे गिरफ्तार करके जेल भेजना ही होगा।[२] मेरे सामने सरकारको इन दोमें से कोई एक काम करनेकी चुनौती देनेके अलावा और कोई सम्मानपूर्ण रास्ता नहीं था, और मेरे विचारसे जो लोग सही या गलत, अपने-आपको शोषित-प्रताड़ित मानते हैं, वे हिंसात्मक विद्रोह न करें, इसका भी एकमात्र विकल्प यही था। लेकिन अपने जीवनका अधिकांश समय मैंने दो समुदायोंके बीच भेद करनेवाली चीजों के बजाय उन्हें एक-दूसरे के निकट लानेवाली चीजोंको खोज निकालने में लगाया है और आज भी मैं वही कर रहा हूँ । लेकिन मेरे अनुभवने मुझे बहुत साफ बता दिया है कि प्रत्येक ईमानदार व्यक्ति के जीवन में ऐसे अवसर आते ही हैं जब वह अपने- आपको ऐसे मुकामपर पाता है, जहाँसे अपनी राह बदल देना उसके लिए जरूरी हो जाता है, और लाचार होकर इस तरह राह बदलनेको ही मैंने 'असहयोग' कहा है ।

हृदयसे आपका,

श्री एच० हारकोर्ट

११९, जिप्सी हिल

लन्दन एस० ई० १९

अंग्रेजी (एस० एन० १२५३५ ) की फोटो नकलसे ।

२५८. पत्र : जी० ए० पाटकरको

स्थायी पता : साबरमती आश्रम
४ अगस्त, १९२७

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। एक निधि खोलनेका आपका विचार प्रशंसनीय है; लेकिन मुझे भय है कि वह चलेगा नहीं। जिस व्यक्तिको प्रतिमाह सिर्फ ५० रुपये मिलते हों, उसके लिए उनमें से ५ रुपये बचा सकना कोई छोटी बात नहीं है, और मैंने देखा है जो लोग बचाकर दे सकते हैं, उनमें से भी बहुत ही कम लोग ऐसे होते हैं जो

  1. श्री हारकोर्टके १२ जुलाई, १९२७ पत्रके उत्तर में ।
  2. देखिए खण्ड २३, पृष्ठ १२४ ।