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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यात्रामें काकाको साथ नहीं ले गया था । काकाके विषयमें मेरी ओरसे तुम निर्भय रहना, क्योंकि मैं किसीसे जबरदस्ती कुछ करा लेनेवाला व्यक्ति नहीं हूँ । यदि तुम आओगे और मुझे समझाओगे तो मैं तुम्हारे द्वारा सुझाये विचारको पूरा-पूरा महत्त्व दूंगा और यदि तुम नहीं आये तो तुम्हारे इस विचारको जितना समझा हूँ उस सीमा- तक उसे कार्यान्वित करनेका प्रयत्न करूँगा । यदि तुम्हारा यह आशय हो कि काकाके मार्गदर्शन करनेका अधिकार ही मुझे नहीं है तो मैं इस नीतिको स्वीकार नहीं कर सकता। यह मैंने इसलिए कहा कि तुम्हारे पत्र में मुझे ऐसी ध्वनि प्रतीत हुई है । तुम मित्रताका जो अर्थ करते मालूम पड़ते हो वह मुझे जँचता नहीं है । मित्रताका ऐसा ही कुछ अर्थ बचपन में में करता रहा । यदि मेरी यह धारणा ठीक है कि तुम भी ऐसा ही अर्थ कर रहे हो तो मैं सोच-समझकर यहाँतक कह सकता हूँ कि यह धर्मविरुद्ध है। मैंने 'नवजीवन' में ही कहीं यह लिखा है कि इस जगत् में ईश्वरके सिवा दूसरा कोई मित्र हो ही नहीं सकता। हम सब तो साथ-साथ काम करनेवाले बैल-मात्र हैं, बस इतना ही है कि कोई हमारे ज्यादा निकट है और कोई कम । किन्तु यह तो मैंने एक नया ही विषय छेड़ दिया । इसे जाने दो । अन्तमें इतना ही कहना है कि यदि में जितना सम्भव हुआ उतना अनुकूल होकर तुम्हें सन्तोष दे सका तो काफी है।

अब मलाबारसे जो पैसा मिला है उसके सम्बन्धमें मेरी राय यह है कि हमें इस पैसेका उपयोग गुजरात में नहीं करना चाहिए। हमें यही समझकर चलना चाहिए कि मेरे द्वारा प्रकाशित सूचनाकी अवधि जिस समय बीत गई उस समय वह पैसा भी खत्म हो गया। मेरी समझ में शुद्ध नीति तो यही है । उस समय उस पैसेका पूरा- पूरा उपयोग नहीं हुआ था और वह बच गया था, यह एक आकस्मिक वस्तु है । यह अलग बात है कि परिस्थितिसे विवश होकर और अपनी कमजोरीके कारण हम दूसरी तरह व्यवहार करें। मैं तो केवल अपना मत प्रकट कर रहा हूँ । किन्तु, यदि तुम्हें या वल्लभभाईको मेरा यह मत पसन्द न आये तो तुम मुझे जरूर लिखना और बताना कि क्या किया जाना चाहिए। ऐसे काममें संकोचको कोई स्थान नहीं हो सकता। हमारे बीच तो होना ही नहीं चाहिए ।

अब वहाँ आनेके विषय में : तुम्हारा पत्र पढ़कर एक बार तो मुझे ऐसा लगा कि चल पड़ें। किन्तु पौन घंटा भी नहीं हुआ होगा कि मेरा मोह दूर हो गया। मैं यात्रा करने लायक नहीं हूँ। अपने शरीरको मैं ठीक पहचानता हूँ । एकान्त में बैठकर विचार करने और काम करनेकी शक्ति तो अभी पर्याप्त मात्रामें शेष है । किन्तु समुदायमें बैठकर बातचीत करनेकी, एकके-बाद-एक लोग आते जायें और मैं उनका मार्गदर्शन करूँ, उन्हें समझाऊँ, रिझाऊँ, नाराज़ होऊँ और इस तरह उनसे काम कराऊँ : -- इसकी शक्ति फिलहाल तो चली गई समझना चाहिए । अन्तमें शायद यह हो सके । इस समय तो आरामसे पड़े रहने और सोनेकी शक्ति ही बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थितिमें मुझे लगता है कि मेरा वहाँ आना, आश्रममें बैठना और स्वयंसेवकोंको इकट्ठा करना सम्भव नहीं होगा। इसके सिवा मैं ऐसा