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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इससे ज्यादा तो मुझे और कुछ सूझता नहीं है ।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी ।

सौजन्य : नारायण देसाई

२६०. पत्र : मीराबहनको

कुमार पार्क,बंगलोर
५ अगस्त, १९२७

चि० मीरा,

तुम्हारा पत्र मिला । वर्धा और साबरमतीमें तुम जो भेद करती हो, उसे में समझता हूँ और उसका बुरा नहीं मानता । यह जानकर खुशी हुई कि तुमने भणसालीको पत्र लिखा है । आश्रमके सम्बन्धमें तो मैंने तुम्हें जो कुछ लिखा है, उससे आगे कहने के लिए कुछ रह नहीं जाता ।

हिन्दी सीखनेका काम तुमपर भार-रूप नहीं बनना चाहिए। तुम्हें यह मान- कर नहीं चलना चाहिए कि यह तो एक ऐसा काम आ पड़ा है जिसे जैसे भी हो, पूरा करना ही है। जिस क्षण तुम्हारा मन ऊबने लगे, उसी क्षण इसे छोड़ देना चाहिए। मैं तुम्हें बता ही चुका हूँ कि मुझमें अपार धीरज है, और यदि तुम हिन्दी सीखनेका काम दो महीने में पूरा नहीं कर सकोगी तो इसके लिए मैं तुमसे जवाब तलब नहीं करूँगा । इस कामको तुम्हें इस तरह करना है जिससे तुम्हें आनन्द आये; और जिस क्षण तुम्हें थकावट महसूस हो, उसी क्षण तुम्हें इसे छोड़ देना चाहिए।

यदि मुझे मालूम होता कि तुम्हारे आश्रम पहुँचते ही तुम्हें क्या काम दिया जायेगा तो मैं अवश्य बता देता, लेकिन मैं खुद ही नहीं जानता । अंग्रेजी पढ़ानेका काम दिये जानेके खिलाफ तुमने जो दलील दी है, उससे मैं पूर्णतया सहमत हूँ और मैं निश्चय ही तुम्हें वह काम न देनेका प्रयत्न करूँगा । इस समय जहाँतक में समझ सकता हूँ, तुम्हें कोई ऐसा काम दिया जायेगा जिसे दूसरोंके साथ मिल-जुलकर करना होगा। क्योंकि मैं चाहता हूँ कि तुम भिन्न-भिन्न स्वभाव के व्यक्तियोंके साथ निभा सको और चाहे जितनी भी प्रतिकूल परिस्थिति हो अपना काम कर सको। वैसे अगर तुम्हें कोई खास काम करना पसन्द हो तो अवश्य बताओ। मेरी अपनी आदत तो यह है कि मैं किसी बातको लेकर पहलेसे ही परेशान नहीं होता, जब उसके बारेमें निर्णय करनेका समय आता है, तभी उसकी चिन्ता करता हूँ। लेकिन यदि तुम इस सबके सम्बन्धमें अभीसे सोचना चाहो तो बेशक सोचो, और मेरे साथ पत्रों द्वारा विचार-विमर्श करो। किसी भी हालत में तुमसे सलाह-मशविरा किये बिना तो मैं तुम्हें कोई काम देता नहीं। मैं तुम्हारी पसन्द तो जानना ही चाहूँगा। चाहे वह अभी हो या तुम्हारे आश्रम पहुँचनेके बाद ।