पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/३५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३१४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तालाबकी गन्दगीसे युक्त जान पड़ती है, उसी प्रकार मूल स्रोतसे अलग हो जानेपर आत्मा भी अपने परिवेशमें व्याप्त बुराई तथा अन्य सारे दोषोंकी भागीदार बन जाती है ।

४. हम बहुधा देखते हैं कि मनुष्य बुरे कर्म करता है। यह बुराई कहाँसे आती है ?

हमारे लिए इतना जानना ही पर्याप्त होना चाहिए कि इस संसारमें बुराई है और हमें उससे बचना है । यदि हम इसके उद्गमको जान लें तो हम सर्वशक्ति- मान् ईश्वर ही न बन जायें। लेकिन इस समय तो हम गन्दे तालाब में पड़ी उस बूँदकी-सी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में हैं, और जबतक हम बुरे कर्म करते हैं तबतक हमें उनका फल भोगना ही पड़ेगा ।

५. संसारमें हम भिन्न-भिन्न प्रकृतिके लोग देखते हैं। जो कर्मरत रहते हैं और सत्कार्य करते हैं उन्हें पुरस्कार मिलता है; जो गलत अथवा बुरे कार्य करते हैं वे दण्डित किये जाते हैं और उन्हें कष्ट भोगना पड़ता है। यह सब धर्मके सिद्धान्तके अनुरूप ही होता है । जब कोई कष्ट भोगता है- जैसे कि इस समय भारतमें किसान अथवा श्रमिक भोग रहा है- तब वह अपने पिछले कर्मोके फलस्वरूप ही भोगता है और यही ईश्वरेच्छा है । तो फिर उसको कष्टसे उबारनेके लिए उसकी मदद करके हम ईश्वरेच्छामें हस्तक्षेप क्यों करें ?

यदि भारतीय किसान भारतीय समाजसे बिलकुल अलग-थलग किसी पहाड़की चोटीपर रहता होता तो हम शायद उसकी उस स्थिति के लिए उत्तरदायी न होते । लेकिन चूँकि वह उसी समाजका अंग है जिससे हम सम्बद्ध हैं, इसलिए जिस प्रकार तालाब में गिरी हुई जलकी वह बूंद अपने-आपको तालाबकी गन्दगीके उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं मान सकती उसी प्रकार हम भी अपने-आपको उस किसान की स्थिति के उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं रख सकते। एक सवाल यह है कि ईश्वर इस बुराईको बनाये हुए ही क्यों है । मगर में जब यह महसूस करता हूँ कि इसका कारण केवल उसीको मालूम है तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है ।

६. दूसरोंकी भलाईके लिए अपनी शक्ति खर्च करनेके बजाय क्या हमें नहीं चाहिए कि हम अपनी शक्तिको ज्ञानोपार्जनमें अथवा अपनी, या बहुत हो तो अपने रिश्तेदारों और पड़ोसियोंकी सुख-सुविधा के लिए धनोपार्जनमें लगायें और उनकी सुख- सुविधाके लिए भी सिर्फ यह सोचकर कि वे जरूरतके समय हमारी मदद कर सकेंगे?

जिस कारण से हमें अपने रिश्तेदारोंकी मदद करनी चाहिए, ठीक उसी कारणसे क्या हमें उन शेष लोगोंकी भी मदद नहीं करनी चाहिए, जिन्हें हम अज्ञानवश अपने रिश्तेदार नहीं मानते ? हम तो जलकी बूंदके समान हैं। यह बूंद अपने सुदूरस्थ पड़ोसियोंमें व्याप्त गन्दगीको भी भोगती है, क्योंकि इसके निकटस्थ पड़ोसी अपने