२८२. पत्र : स्वामीको
९ अगस्त, १९२७
तुम्हारा आखरी तार[१] मिला। उसका जवाब तारसे दिया है, वह मिला होगा । तुम्हारे तार और तुम्हारे पत्रसे तुम्हारा प्रेम और तुम्हारा दुःख छलकता है। तुमसे में यही आशा रखता हूँ ।
मेरा कर्तव्य प्रेमकी अतिशयताको रोकनेका है । तुम्हारे भेजे हुए आँकड़ोंको देखकर मुझे ऐसा नहीं लगा कि हमारी स्थिति आज २५ हजार रुपया देने लायक हो । अभी तो हम कठिनाईसे आय और व्ययको समान रख सकते हैं, ऐसा ही लगा है । किन्तु यदि हमारे पास २५ हजार रुपये पड़े हैं तो क्या इससे यह सिद्ध नहीं होगा कि हम कहीं न कहीं बहुत ज्यादा मुनाफा कर रहे हैं अथवा अपने कर्मचारियों- को पूरा वेतन नहीं देते ?
ऐसा हो या न हो किन्तु मुझे लगता है कि यदि हमारी शक्ति इतना पैसा दान करनेकी है तो यह दान गुप्त रीतिसे ही किया जा सकता है। यदि हमारी छोटी-सी संस्था इतना बड़ा दान देती है, तो इससे दूसरी संस्थाओंको चोट पहुँचेगी और उससे द्वेषको भावना उत्पन्न होगी । यह तो स्पष्ट है कि उसका अनुकरण नहीं हो सकता। और दानका विज्ञापन तो तभी होना चाहिए जब हम यह चाहते हों कि उसका अनुकरण किया जाये । अन्यथा सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि वह दान शुद्ध दान नहीं है, आडम्बर है ।
हमारे लिए ठीक स्थिति तो यह मानी जायेगी कि हममें दान देनेकी शक्ति ही न हो। तुम्हारी पत्रिकासे यह जान पड़ता है कि हमारे कर्मचारियोंके घरोंको इस बाढ़ से काफी नुकसान हुआ है। यदि हममें शक्ति हो तो इस सहायता कार्य में हमारी संस्थाका ठीक योगदान यह होगा कि अपने पैसेका उपयोग उनके घरोंकी मरम्मत आदि कराने में करें ताकि इस कार्यका बोझ सार्वजनिक निधिपर न पड़े ।
तुम्हारे तारका पूरा अर्थ हम लोगोंमें से किसीकी समझमें नहीं आया। यदि तुमने यह सोचा हो कि संस्थाके कर्मचारी आदि प्रति माह जितना कम ले सकें उतना कम लें और बाकी पैसा निधिको दान कर दें तो मेरी सलाह यही है कि उनका यह पैसा ज्यों-ज्यों इकट्ठा हो त्यों-त्यों आप लोग उसका उपयोग ढेढ़ और भंगियोंके लिए करते जायें। यदि हम ऐसा करें तो यह एक स्थायी कार्य होगा । तात्कालिक आवश्यक सहायता तो सबको मिल ही जायेगी और सब लोग, जो कुछ
- ↑ इस तार में स्वामी आनन्दने सुझाव दिया था कि बाढ़ पीड़ितों को सहायता के लिए नवजीवन पच्चीस हजार रुपये अपनी बचतले दे और यह प्रस्ताव किया था कि संस्थाको कोई आर्थिक हानि न हो इस दृष्टिसे वे अभी उसमें दो वर्ष तक और बने रहेंगे ।