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२८८. पत्र : छगनलाल जोशीको

बुधवार, १० अगस्त, १९२७

भाईश्री छगनलाल,

में तुम्हारे पत्रसे यह नहीं समझ सका कि आखिर पुरुषोत्तम काम-धन्धे से मुक्त हुआ या नहीं। विद्यार्थियोंपर तुम सच्चा असर तो तभी डाल सकोगे जबकि तुम सब लोग अपना बचा हुआ समय शारीरिक परिश्रम और दस्तकारीमें लगाने लगो और विद्यार्थियों को यह अनुभव हो कि इन कामोंमें तुम्हें रस मिलता है। यदि तुम यह कहो कि तुम्हें समय ही नहीं मिलता तो उसके प्रत्युत्तरमें मैं कहूँगा कि इन कार्यों में तुम्हारी रुचि ही नहीं है, इसीसे समय नहीं मिल पाता । यह तो मुझे साफ- साफ दिखाई दे रहा है कि हमारे विद्यार्थियोंके मनमें कमाई करनेकी इच्छा है । हम खुद कभी गरीबी नहीं भोगते और न हम सचमुचमें मजदूर ही हैं, यह एक चीज तो है ही। इसके सिवा ऐसा भी नहीं है कि हममें से सभी धनोपार्जन करना नापसन्द ही करते हों। इस बारेमें इतना ही कहा जा सकता है कि धनोपार्जन करना हमें नापसन्द होना चाहिए और हम वैसा करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। विद्यार्थी भी इस स्थिति से आगे कैसे जा सकते हैं ? अस्तु, इसके पहले कि विद्यार्थी भविष्य के रंगीन सपने देखना बन्द करें आश्रमको काफी प्रगति करनी होगी। सच बात तो यह है कि हमारा त्याग और हमारा प्रयास दूसरोंकी तुलनामें भले ही उज्ज्वलतर दिखाई पड़ते हों किन्तु वास्तवमें वे दोनों हैं नगण्य ही । सम्भव है इसमें हमारा कोई दोष न हो और परिस्थितिके कारण ही ऐसा होता हो किन्तु इस वजहसे हम कम से कम उसकी उपेक्षा तो न करें ।

मैंने आज काकासाहबसे तुम्हारे पत्रपर चर्चा की थी। हमें जब भी समय मिलता है इस प्रकारकी चर्चा किया ही करते हैं । इस सम्बन्धमें काका विस्तारसे लिखेंगे । अतः में विशेष कुछ नहीं लिख रहा हूँ । किन्तु इतना तो स्वीकार करता हूँ कि जबतक काका कार्यसमिति के उपप्रधान हैं तबतक उनका नैतिक उत्तरदायित्व तो बना ही रहेगा। और इसलिए दूर होनेके बावजूद तुम्हें उनकी सम्मति लेनेका पूरा अधिकार है । सम्मति देनेके उत्तरदायित्वको काका निभा सकेंगे या नहीं इस बातपर हम दोनों विचार कर रहे हैं । किन्तु इस मामलेमें जिसे हम दोनोंसे ज्यादा अधिकार है वे स्वामी तो दूर बैठे हुए हैं। वे क्या सोचते हैं, इसपर भी हमें विचार करना होगा।

बापूके आशीर्वाद

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।

सौजन्य : नारायण देसाई

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