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२९३. अनेकतामें एकता

कुछ महीने पहले मैंने जिन पोलैंडवासी प्रोफेसर के[१] सच्ची जिज्ञासासे प्रेरित प्रश्नों- के उत्तर देनेकी कोशिश की थी[२], उन्होंने मेरे उत्तर पढ़कर फिर निम्नलिखित प्रश्न मुझे भेजे हैं :

१. सभी मनुष्य समान नहीं है। क्या आप यह भी मानते हैं कि राष्ट्रों- के बीच भी भारी असमानता है ?

२. अगर ऐसा है तो क्या आपकी समझसे पार्लियामेंटके नामसे पुकारी जानेवाली निर्वाचित प्रातिनिधिक संस्थाएँ, जिन्होंने यूरोपको विश्वयुद्धकी विभीषिका झोंका, भारतके लिए सचमुच उपयुक्त हैं ?

३. क्या आप ऐसा समझते हैं कि भारत उसी अर्थ में एक राष्ट्र बन सकता है जिस अर्थ में इटली या फ्रान्स एक राष्ट्र है ?

४. क्या ऐसा मानना सही है कि एशियाका भविष्य भारतके एकीकरणपर निर्भर है, क्योंकि सिर्फ यही वह देश है जो जापान और चीनकी भौतिकवादी प्रबृत्तियोंपर अंकुश रख सकता है ?

५. क्या एशियाके सामने सचमुच यही विकल्प नहीं है कि या तो जापान की तरह कृत्रिम ढंगसे इसका यूरोपीयकरण हो या फिर यह उस प्राचीन आर्य परम्पराकी शरणमें जाये जिसे सभी प्रमुख भारतीय विचारक वरेण्य समझते जान पड़ते हैं ?

६. क्या मूल आर्य परम्पराके प्रति इस नये आकर्षणका यूरोपके लिए भी कोई महत्त्व है ?

७. यूरोपीय सभ्यताके तमाम दोषोंके बावजूद क्या आपको उसमें ऐसी एक नई शक्ति नहीं दिखाई देती जो हिन्दू जातिकी अनुभव-सम्पत्ति से आगे जाती है ?

८. क्या भारतमें कहीं भी फ्रान्सके उन अनेक छोटे-छोटे नगरोंके समान एक भी नगर है जिनमें हर व्यक्ति अपनी-अपनी आकांक्षाओंकी पूर्तिके लिए अपनी-अपनी इच्छानुसार चलनेको स्वतन्त्र है, जिसमें सभी सुखी-सम्पन्न हैं, सभी सुशिक्षित और सामाजिकताके उच्च गुणोंसे सम्पन्न हैं तथा विभिन्न विचारधाराओं और प्रवृत्तियों के लोग आपस में स्नेहपूर्वक मिलते-जुलते हैं ? फ्रान्समें ऐसे नगर हैं और इंग्लैंडमें भी । लेकिन पता नहीं, भारतमें भी ऐसी कोई चीज है या नहीं ।

  1. डब्ल्यू. ल्यूतस्तोवस्की ।
  2. देखिए खण्ड ३३, पृष्ठ २६५-७ ।