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अनेकता में एकता

"सभी मनुष्य समान नहीं हैं", ऐसा कहकर पत्र लेखकने सत्यका एक ही पक्ष बताया है। इसका एक दूसरा पक्ष भी है कि सभी मनुष्य समान हैं । कारण, यद्यपि सभी एक ही उम्रके, एक ही ऊँचाईके, एक-सी चमड़ीवाले, एक जैसी बुद्धिवाले नहीं हैं, किन्तु ये तमाम असमानताएँ अस्थायी और सतही हैं; इस मृत्तिका आवरणके अन्दर छिपी आत्मा एक ही है, वही आत्मा हर देश, हर क्षेत्रके सभी स्त्री-पुरुषोंमें व्याप्त है । इसलिए, ऐसा कहना शायद ज्यादा सही होगा कि हम अपने चारों ओर जो अनेकता देखते हैं, उसमें एक वास्तविक और तात्त्विक एकता वर्तमान है । 'अस- मानता' शब्दकी ध्वनि ठीक नहीं है और इसके कारण प्राच्य संसारमें और पाश्चात्य संसारमें भी बड़े उद्धततापूर्ण और अमानवीय कृत्य किये गये हैं । जो बात व्यक्तियों पर लागू होती है, वही राष्ट्रोंपर भी, क्योंकि राष्ट्र भी तो व्यक्तियोंका समूह ही होता है । असमानताके झूठे और कठोर सिद्धान्त के कारण एशिया और आफ्रिकाके राष्ट्रोंका अहंकारपूर्ण शोषण किया गया है। कौन कह सकता है कि आज पश्चिम में जो पूर्वका शोषण करनेकी क्षमता है वह पश्चिमवालोंकी श्रेष्ठता और पूर्ववालोंकी हीनताका ही परिणाम है ? मैं जानता हूँ कि प्राच्य संसार बड़े दीन-भावसे, बिना सोचे-समझे तुरन्त इस घातक सिद्धान्तको स्वीकार कर लेता है और तब पाश्चात्य संसारकी नकल करनेका निष्फल प्रयास करता है। इस काव्यात्मक उक्ति में बहुत अधिक सचाई है कि " बाहरी रूप वस्तुओंके आन्तरिक गुणका द्योतक नहीं होता । "

दूसरा प्रश्न पहलेका तर्कसंगत परिणाम नहीं है । और चूँकि मैं असमानताके सिद्धान्तको उस अर्थ में स्वीकार नहीं करता जिस अर्थ में उसका प्रयोग लेखकने किया है, इसलिए मैं यह भी स्वीकार नहीं कर सकता कि निर्वाचित प्रातिनिधिक संस्थाएँ भारत के लिए सचमुच अनुपयुक्त हैं। लेकिन अगर भारत पश्चिमका अन्धानुकरण करने लगे तो मुझे घोर दुःख होगा । इसके कारण मैंने 'हिन्द स्वराज्य' में बता दिये हैं, और यद्यपि उस पुस्तकको लिखे अब बीस वर्ष हो चुके हैं, फिर भी मेरे जीवन में ऐसा एक भी अवसर नहीं आया जब मुझे उसके असली मुद्दोंमें कोई परिवर्तन करने- की आवश्यकता महसूस हुई हो। यूरोपीयोंके भारत आनेके पूर्व यहाँ निर्वाचित प्राति- निधिक संस्थाओंका अस्तित्व न रहा हो, ऐसी बात नहीं है । लेकिन, जहाँतक में समझ सकता हूँ, यहाँ 'प्रातिनिधित्व' और 'निर्वाचन' शब्दोंके अर्थ, यूरोप में इनसे जिन अर्थोका बोध होता है, उनसे बहुत भिन्न थे ।

मेरे विचारसे तो भारत आज भी एक राष्ट्र है - ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार इटली या फ्रान्स है; और यद्यपि में इस दुःखद तथ्य से भलीभाँति अवगत हूँ कि हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरेकी जान के गाहक बने हुए हैं, ब्राह्मण और अब्राह्मण एक ऐसे ही भ्रातृ-घातक संघर्षकी राहपर चल रहे हैं और ब्राह्मण तथा अब्राह्मण दोनों अपने सामाजिक ढाँचे में उन वर्गोंको कोई स्थान देने को तैयार नहीं हैं जिनका शोषण करनेके लिए उन्होंने कुछ उठा नहीं रखा है, फिर भी में यह मानता हूँ कि भारत एक राष्ट्र है। लेकिन, ऐसे झगड़े तो परिवारों तथा दूसरे राष्ट्रोंमें भी होते रहे हैं । यह सब देखकर मुझे अक्सर ऐसा भी लगा है कि झगड़े भी वहीं होते हैं