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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जहाँ लोगों में परस्पर पारिवारिक निकटता होती है। लेकिन मुझे पत्र लेखककी इस बात से सहमत होते हुए बड़ी खुशी हो रही है कि एशियाका भविष्य भारतके ठीक और साफ दिखाई देने लायक एकीकरणपर निर्भर है।

लेकिन, मैं यह नहीं समझता कि नकली यूरोपीयकरणका एकमात्र विकल्प प्राचीन आर्य परम्पराको पूरी तरह स्वीकार कर लेना है । महान् चिन्तक स्वर्गीय न्यायमूर्ति रानडेके इस विचारसे मैं सहमत हूँ कि प्राचीन परम्पराको एक बार पुनः पूरी तरह प्रतिष्ठित कर देना यदि वांछनीय भी हो तो यह सम्भव नहीं है । अव्वल तो कोई भी अधिकारपूर्वक यह नहीं कह सकता कि प्राचीन आर्य परम्परा क्या थी या क्या है । कौन-सा युग इतिहासका 'स्वर्ण-युग' था, और उसकी क्या विशेषताएँ थीं, यह बात बिलकुल ठीक-ठीक बता सकना मुश्किल है। और मुझमें इतना स्वीकार करनेकी नम्रता तो है ही कि पश्चिममें ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें ग्रहण करनेसे हमारा लाभ हो सकता है । बुद्धि और ज्ञान किसी एक महादेश या एक जातिकी बपौती नहीं है । मैं जो पाश्चात्य सभ्यताका विरोध करता हूँ वह असल में उसकी अन्धाधुन्ध और विवेकशून्य नकलकी उस प्रवृत्तिका विरोध करता हूँ, जिसका आधार यह गलत धारणा है कि एशियाई लोग तो पश्चिमसे आनेवाली तमाम चीजोंकी नकल करनेके अलावा और किसी लायक हैं ही नहीं । मैं मानता हूँ कि अगर भारत में इतना धैर्य हो कि वह कष्ट सहनकी आँचको बरदाश्त कर सके और अपनी सभ्यतापर, जो अपनी खामियोंके बावजूद कालके थपेड़ोंको झेलकर आजतक अपना अस्तित्व बनाये है, किये गये किसी भी आक्रमणका सामना कर सके तो संसारकी शान्ति और प्रगति में वह स्थायी योगदान दे सकता है ।

मुझे यह स्वीकार करते हुए प्रसन्नता हो रही है कि विश्वके कल्याणके लिए पश्चिम में एक नई शक्तिका धीरे-धीरे किन्तु निश्चित तौरपर उदय हो रहा है । मैं यह नहीं जानता कि वह शक्ति हिन्दू जातिकी अनुभव-सम्पत्तिसे आगे जा सकेगी या नहीं। लेकिन मानवताकी समृद्धिमें जहाँसे जो योगदान मिले, मैं सबका स्वागत करूँगा ।

और अन्त में, सुधी प्रोफेसर महोदयने फ्रान्स और इंग्लैंडके सभी दृष्टियोंसे स्वयं-सम्पूर्ण लघु नगरोंकी जो सुन्दर शब्दोंमें प्रशंसा की है, उसके सम्बन्धमें में कुछ नहीं कह सकता। इंग्लैंडके नगरोंके बारेमें मुझे बहुत कम जानकारी है और फ्रान्सके नगरोंके बारेमें तो और भी कम । मैं यह स्वीकार करता हूँ कि उनके सम्बन्धमें मेरे मन में कुछ शंकाएँ हैं । किन्तु में एक बात अवश्य जानता हूँ। वह यह कि अगर प्रोफेसर साहब भारतीय गाँवोंके उस बाहरी रूपको, जो लगभग न देखने लायक है, देखना बरदाश्त कर सकें तो मैं उन्हें उनमें से कुछ ऐसे गाँवोंमें ले जानेको तैयार हूँ जहाँ वे एक उच्च कोटिकी संस्कृति के दर्शन करेंगे, और जहाँ उन्हें किताबी शिक्षासे प्राप्त व्यवहारकी सुघड़ाई तो देखने को नहीं मिलेगी, लेकिन मानव हृदय और मान- वीय संवेदनाओंकी झाँकी अवश्य मिलेगी, और जहाँ, यदि वे अपने मनको खान-पान में अलगाव और छुआछूत बरतने के विचित्र भारतीय तौर-तरीकोंको स्वीकार करनेपर राजी