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हिन्दू-मुस्लिम एकता

कठोर हृदय द्रवित हो सकें, उनका हृदय परिवर्तन हो सके तो में अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वैसा उपवास करने को तैयार हूँ। दरअसल तो १९२४में दिल्ली में मैंने लगभग वैसा ही उपवास किया भी था।[१] लेकिन इस तपश्चर्याके लिए अभी मुझे मेरी अन्तरात्मासे कोई संकेत नहीं मिला है। अगर तपश्चर्या अपने में शुद्धीकरणकी एक क्रिया है तो उसे आरम्भ करने से पहले अपना उतना प्रारम्भिक शुद्धीकरण भी तो अपेक्षित है। स्पष्ट ही [ अनिश्चित कालतक उपवास-रूपी ] सर्वोच्च तपश्चर्या करनेकी दृष्टिसे में पर्याप्त शुद्ध नहीं हूँ ।

अगर पाठक देखते हैं कि में अब इन पृष्ठों में अक्सर इस प्रश्नकी चर्चा नहीं करता तो उसका कारण यह है कि दुःख और निराशाकी भावना मेरे अन्दर इतनी गहरी चली गई है कि उसे शब्दोंमें व्यक्त नहीं किया जा सकता। इन लज्जाजनक कुकृत्योंके कर्त्ता हिन्दू हैं या मुसलमान, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । इतना जानना ही काफी है कि हममें से कुछ लोग धर्मके पुनीत नामपर अमानवीय कृत्य करके परम क्षमाशील ईश्वरका अपमान कर रहे हैं। में यह भी जानता हूँ कि धर्मकी रक्षा न तो हत्या करने से हो सकती है और न बन्धुघाती कृत्योंसे । जिसे सच्चे अर्थों में धर्म कहा जा सकता है, उसकी रक्षा तो उसके अनुयायियों द्वारा उच्चतम प्रकारकी पवित्रता, विनय और निर्भीकता बरतने से ही हो सकती है। यही एकमात्र 'शुद्धि' और एकमात्र धर्म-प्रचार है ।

इसीलिए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीके प्रस्तावका मुझपर कोई असर नहीं हुआ है। कारण, मैं जानता हूँ कि अबतक हमने अपना हृदय परिवर्तन नहीं किया है, हमने एक-दूसरे से डरना नहीं छोड़ा है । और जिस समझौते से ये दोनों शर्तें पूरी नहीं होतीं वह समझौता तो एक कामचलाऊ समझौता ही होगा ।

इसके अतिरिक्त मुझे यह भी लगता है कि राष्ट्रके संघटक हिस्सोंके बीच जो भी समझौता हो उसे स्वेच्छापर आधारित होना चाहिए और सदा स्वेच्छापर ही आधारित रहना चाहिए । अगर इस समझौतेकी परिकल्पना स्वराज्य की दृष्टिसे की गई हो तो फिर इसमें कोई ऐसी बात नहीं होनी चाहिए कि कोई कानून बनाकर इसकी अन्तिम रूपसे संपुष्टिकी जायेगी अथवा इसे लागू किया जायेगा । हमारे सम्बन्धित संगठनों द्वारा की गई संपुष्टि ही अन्तिम और बन्धनकारी होनी चाहिए। इसका लागू किया जाना सम्बन्धित पक्षोंके नेताओंकी प्रामाणिकता और अगर सभी पक्ष अहिंसात्मक तरीकोंपर भरोसा न रख सकें तो अन्ततः आपस में लड़ी गई लड़ाईपर निर्भर होना चाहिए फिर - चाहे वह लड़ाई शोभनीय हो अथवा अशोभनीय । हम अपने आपसी मामलोंमें बीच-बचाव करानेके लिए अथवा संगीनोंके जोरपर हमारे बीच शान्ति स्थापित की जा सके, इसके लिए विदेशी शासकोंकी शक्तिका सहारा लें, यह स्वराज्य प्राप्त करनेकी दृष्टिसे हमारी योग्यताकी नहीं बल्कि कमजोरीकी निशानी है ।

  1. १७ सितम्बर से ८ अक्टूबरतक; देखिए खण्ड २५ ।