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सच्चा विज्ञान और सच्ची कला

कारी बहुत चिन्तित हो उठे हैं और उसकी रोक-थाम करनेके लिए उन्होंने कुछ भी उठा नहीं रखा है।

और फिर भी हमारे बीच ऐसे बुद्धिमान लोग मौजूद हैं जो युद्धके द्वारा " मानवोचित गुणोंका विकास करने" की बात करते हैं तथा ऐसे नादान लोग भी हैं जो उनकी इस बातका समर्थन करते हैं ।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ११-८-१९२७

२९५. सच्चा विज्ञान और सच्ची कला

एक मित्रने एंटन चेखवकी कहानीका एक अंश भेजा है। वह अंश उद्धृत करने लायक है। उसे नीचे दे रहा हूँ:

सच मानिए, इस विषयमें मेरा अपना एक निश्चित मत है। मेरी समझ से तो ये तमाम पाठशालाएँ, औषधालय, पुस्तकालय चिकित्सा-सम्बन्धी सहायता देनेवाली समितियाँ वर्तमान परिस्थितियोंमें तो जनताको बेड़ियोंको और भी मजबूत ही करती हैं। कृषक वर्ग एक जबरदस्त बेड़ीसे जकड़ा हुआ है और आप उस बेड़ीको तोड़ने के बजाय उसमें और भी कड़ियाँ जोड़ने का काम करते हैं ।

अन्ना प्रसव- कालमें मर गई, यह कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात तो यह है कि अन्ना, मावरा और पिलेजिया-जैसी स्त्रियाँ सुबहसे लेकर रात ढले- तक कठिन परिश्रम करती हैं, शक्ति से बाहर काम कर-करके रुग्ण हो जाती हैं, जिन्दगी-भर अपने बीमार और क्षुधार्त बच्चोंकी चिन्तासे उनके मनमें हाहाकार-सा मचा रहता है, उनका सारा जीवन रोगोंको चिकित्सा कराते ही बीतता है, मृत्यु तथा रोगका भय हर क्षण उन्हें खाये जाता है और वे कम उनमें ही बूढ़ी होकर अन्तमें गन्दगी और गरीबीके बीच दम तोड़ देती हैं। बड़े होते ही उनके बच्चोंपर भी फिर वही सब गुजरने लगता है। इस तरह यह चक्र सैकड़ों वर्षोंसे चल रहा है, करोड़ों मनुष्य पशुओंसे भी बुरी अवस्थामें जी रहे हैं- रोटीके एक टुकड़के लिए वे बराबर भयातुर और चिन्तित रहते हैं । उनकी स्थितिकी सारी विडम्बना यह है कि उन्हें कभी यह सोचनेका भी समय नहीं मिलता कि वे क्या हैं, उन्हें क्या होना चाहिए। सर्दी, भूख, जीवधारियोंके मन में रहनेवाली सहज भयकी भावना और कठोर श्रमका दुर्वह भार, ये सब विशाल हिम-खण्डोंकी तरह उनकी बौद्धिक प्रवृत्तिके सभी मार्ग रोककर खड़े हैं, जब कि यही प्रवृत्ति वह चीज है जिसके कारण मनुष्य पशुसे भिन्न होनेका दावा कर सकता है और जो जिन्दगीको जीने लायक बनाती है ।