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३००. पत्र : ए० बकीको

स्थायी पता : बंगलोर
११ अगस्त, १९२७

प्रिय मित्र,

मुझे खुशी है कि आपने मुझे 'रंगीला रसूल' नामकी पुस्तिकाको लेकर चल रहे आन्दोलन के बारेमें लिखा । इस तरहका मुझे यह चौथा पत्र मिला है। वह पुस्तिका मैंने आज से लगभग तीन साल पहले देखी थी, और उसे पढ़कर मुझे बहुत दुःख हुआ था । यह सब मैंने 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंमें लिखा था । इस समय जो आन्दोलन चल रहा है, वह मुझे बिलकुल निराधार और गलत दिशामें चल रहा जान पड़ा है। इस बारे में यदि मैंने कुछ लिखा भी तो उसमें में इस आन्दोलनकी निन्दा ही करूँगा, हालाँकि जहाँतक पुस्तिकाका सवाल है, मैं अपने पुराने विचारोंको अवश्य दोहराऊँगा । न्यायाधीशकी जो आलोचना की जा रही है, वह बड़े दुःखकी बात है । मैं न्यायाधीशके त्याग पत्र देनेकी माँगमें अथवा जिन लेखकोंने न्यायाधीशका अपमान किया है उनके रिहा किये जानेकी माँगम शरीक नहीं हो सकता। मेरे विचारसे यह आन्दोलन वहींतक सही है जहाँतक इसका सम्बन्ध इस माँग है कि यदि कोई कानून किसी वर्ग या जनसमुदायकी धार्मिक भावनाओंको ठेस पहुँचानेवाले लोगोंको दण्डित करने की दृष्टिसे अपर्याप्त है तो उसमें परिवर्तन किया जाना चाहिए। लेकिन उस आन्दोलन में जो तमाम कटुता आ गई है, उस सबकी कतई कोई जरूरत नहीं है । यदि कानून दोषपूर्ण है तो तूफान खड़ा कर देनेवाले किसी आन्दोलनके बिना भी सरकार उसे दुरुस्त करनेको बाध्य है ।

जिन पत्र लेखकों का मैंने जिक्र किया है, उन्होंने मुझे लिखा है कि हिन्दुओं द्वारा चलाये जानेवाले अखबारोंने 'रंगीला रसूल' में लिखी घिनौनी बातोंकी ताईद की है। मेरे पास यहाँ हिन्दुओं द्वारा सम्पादित जो अखवार आते हैं और जिन्हें मैं पढ़ता हूँ, उनमें मैंने कभी भी ऐसी कोई चीज नहीं देखी है। मैंने इन पत्र लेखकों से कहा है[१] कि वे मुझे बतायें कि उनका तात्पर्य किन लेखोंसे है । लेकिन मुझे इन पत्रोंके उत्तरमें किसीने कुछ नहीं लिखा है । क्या आपने उनके द्वारा बताये गये किसी ऐसे लेखको पढ़ा है? क्या आपने ऐसे लेख देखे हैं ? यदि देखे हों, तो कृपया उन्हें मुझे भेज दें। मैं निस्सन्देह, उनपर कुछ कार्रवाई करना चाहूँगा ।

  1. देखिए " एक पत्र ” १०-७-१९२७ और " पत्र : गुलजार मुहम्मद अकील' को " ७-८-१९२७।