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३०३. पत्र : कृष्णदासको

दावनगिरि
११ अगस्त, १९२७


प्रिय कृष्णदास, अब मैं समझ गया हूँ कि तुमने रामविनोदके बारेमें क्या किया है । मेरा खयाल है, सारी व्यवस्था काफी सन्तोषजनक है। लेकिन मेरा अपना खयाल तो जो है वह है ही; यह जानकर मुझे बड़ी खुशी हुई है कि तुम और राजेन्द्रबाबू दोनों राम- विनोदके आचरण से सन्तुष्ट हैं और दोनोंको उसकी ईमानदारीके बारेमें कोई सन्देह नहीं है।

तुम सुरेशबाबूसे तो मिल ही चुके होगे, शायद कोमिला भी हो आये होगे, और यदि तुम्हारे मन में सोदपुर जानेका विचार अभीतक न आया हो तो मेरी इच्छा है कि अब तुम वहाँ जाकर कारोबारको देख आओ और विशेष रूप से सतीशबाबू तथा हेमप्रभादेवी से मिल आओ ताकि तुम मुझे बता सको कि इन दोनोंका स्वास्थ्य अब कैसा है और वहाँके कारोबार में कितनी प्रगति हुई है । तुमने अपने पत्र में खद्दर के बारेमें जिस रायका हवाला दिया है, उसपर भी तुम सुरेशबाबू तथा सतीशबाबूसे बातचीत कर सकते हो। इसमें कोई सन्देह नहीं कि बिचौलिये को कुछ अवश्य मिलता है । इसमें कुछ अनुचित भी नहीं है। लेकिन इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि बुनाई और कताईका पारिश्रमिक सीधे उन कारीगरोंकी जेबमें जाता है जिनको ध्यान में रखकर हम यह प्रवृत्ति चलाते हैं।

आज हम दावनगिरिमें हैं और दस दिन इसी इलाकेके दौरेपर रहेंगे और २१ तारीखको बंगलोर पहुँचेंगे। मैसूर राज्यसे हम अन्तिमरूपसे २८ तारीखको प्रस्थान करेंगे।

अंग्रेजी (एस० एन० १४२१६) की फोटो - नकलसे ।