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३०४. पत्र : जयन्तीको

११ अगस्त, १९२७

चि० जयन्ती,

तुम्हारा पत्र मिला। बाढ़ने सारा समय-क्रम गड़बड़ कर दिया है इसलिए यह तो सम्भव नहीं रहा कि तुम्हें मेरा आशीर्वाद जन्म-तिथिके ही दिन पहुँच जाये । परन्तु तुम मान लेना कि यह आशीर्वाद तुम्हें उसी दिन मिला। तुम चिरायु होओ, शुद्ध सेवक बनो और तुम्हारी समस्त शुभ आशाएँ फलीभूत हों । तुम और अन्य सभी विद्यार्थी एक काम अवश्य करो, अपने अक्षर मोती के समान सुन्दर बनाओ। यह काम कुछ कठिन भी नहीं है । जिस प्रकार बेसुरे गायनको हम संगीत नहीं कह सकते उसी प्रकार बेडौल अक्षर, अक्षर नहीं माने जा सकते। मैं तुम्हें यह सीख देने योग्य तो नहीं हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि मेरे अक्षर सुन्दर नहीं हैं। परन्तु जिस प्रकार डूबता हुआ मनुष्य यह कह जाये कि इस स्थानपर न आना तो समझदार उसकी चेतावनीका खयाल रखते हैं उसी प्रकार तुम सभी विद्यार्थी समझदार बनकर मेरी चेतावनीको मानना । शब्द अलग-अलग लिखने चाहिए। पंक्तियोंमें अन्तर होना चाहिए । पंक्ति सीधी होनी चाहिए और प्रत्येक अक्षर उसी प्रकार कुशलतापूर्वक लिखा जाना चाहिए जैसे चित्रकार अपना चित्र बनाता है ।

अब रामायणके बारेमें। धर्मग्रन्थके रूपमें मैं तुलसीकी रामायणको अवश्य अधिक मान दूंगा। वाल्मीकिकी रचनाएँ कला चाहे अधिक हो पर भक्ति रस तो तुलसीदासकी रचनामें ही अधिक है, इस विषय में मुझे तनिक भी शंका नहीं है । फिर वाल्मीकिकी रामायण फिलहाल तो संस्कृत में ही पढ़ी जा सकती है। मैंने अभीतक उसका एक भी ऐसा गुजराती अनुवाद नहीं देखा जो मूलका-सा रस दे सके। दोनोंमें से कोई भी ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं है । वाल्मीकि रामायणमें कुछ ऐति- हासिक स्त्री-पुरुषोंका चित्रण है, किन्तु वह मात्र झांकीके रूपमें है। उससे वास्तविक इतिहासका अनुमान नहीं किया जा सकता, ऐसा मेरा दृढ़ मत है । तुलसीदासकी रामायण में तो इतिहासका प्रश्न ही नहीं है। अगर हम यह कहें कि उन्होंने अपने युगके अनुरूप वाल्मीकिकी रामायणका अनुवाद किया है तो ठीक ही होगा । पर यह अनुवाद करते हुए उन्होंने भक्ति के आवेगमें उसमें मनचाही छूट ली है। किन्तु उन्होंने जो भी छूट लो है उससे हिन्दू समाजका अनिष्ट नहीं, लाभ ही हुआ है। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है वैसे-वैसे अलौकिक गुणोंसे युक्त स्त्री-पुरुष देवी और देवता बन जाते हैं और अन्त में भगवान्‌ के समान पूजे जाने लगते हैं। ऐसा तो हमेशा होता है और यह ठीक भी है। देहधारी मनुष्य दूसरी किसी रीतिसे भगवान्‌ की पूजा नहीं कर सकते । इसलिए तुलसीदासने भगवान् रामचन्द्रके बारेमें जो-जो लिखा है वह सब उनके अपने भाव हैं । तुलसीदासने बताया है कि भगवानूका स्वरूप अवर्णनीय