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पत्र : रामदास गांधीको

है । इन्द्रियोंके लिए अगम्य और गुणातीत है । अतः यदि बालि का वध हमारे गले न उतरता हो तो हम उतने भागका त्याग कर दें अथवा यह मान लें कि ऐसा वर्णन करते समय तुलसीदासने अपने युगकी मान्यताओंका अनुसरण किया है, उनसे आगे वे नहीं जा सके । मनुष्य जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है भगवान्‌ के विषय में उसका ज्ञान सूक्ष्म और शुद्ध होता जाता है और होना भी चाहिए। इसलिए रामायणको ऐतिहासिक ग्रन्थके बजाय धर्मग्रन्थके रूप में पढ़ें। और उसके कथा-भागमें जो अंश हमें नीति-विरुद्ध लगे हम उसे छोड़ दें। तुलसीदासजीने स्वयं अपनी रचनाको सदोष माना है। उन्होंने उसका कारण दूसरा बताया है, फिर भी उन्होंने उसे सदोष माना है हमारे लिए इतना ही काफी है । फिर, “जड़-चेतन गुन-दोषमय बिस्व कीन्ह करतार” वाला प्रसिद्ध दोहा लिखकर तुलसीदासने हमें प्रत्येक वस्तुको देखनेकी कला सिखा दी है। मनुष्यकी प्रत्येक कृति गुण-दोषमय है अतः हमें हंसकी तरह गुणरूपी सार ग्रहणकर दोषरूपी विकारोंका त्याग कर देना चाहिए। सभी पुस्तकोंको पढ़नेकी यह सुनहरी कला है । जो समझ में न आये वह विनयपूर्वक शिक्षकसे पूछें और तब भी समझमें न आये तो उसे छोड़ दें। पर अपनी बुद्धिको भ्रष्ट न होने दें और मनको मलिन न होने दें। जो सत्य, अहिंसा आदिके विरुद्ध हो वह शास्त्र वचन नहीं हो सकता, ऐसा मानकर शास्त्रके रूपमें प्रसिद्ध ग्रंथ में भी, भले वह छपा हुआ हो तब भी, हम उसका त्याग कर दें । यह पत्र तुम्हारे लिए ही लिखा है पर ऐसा समझकर कि यह तुम सबके लिए है, इसे सबको पढ़वाना और बड़ोंको भी दिखाना। क्योंकि यद्यपि मैने रामायणके विषय में अपने विचार थोड़े-थोड़े करके तो कई बार समझाये हैं पर इतनी स्पष्टतापूर्वक और इतने संक्षिप्त रूप में कभी पहले लिखे हों ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता ।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी ।
सौजन्य : नारायण देसाई

३०५. पत्र : रामदास गांधीको

११ अगस्त, १९२७

कान्तिलालके विषय में तुम्हें चिन्ता करनेका कोई कारण नहीं है। मैंने जो कदम उठाया है उसके विषय में तुम्हें पता लगा होगा। एक बात तो मैं तुम्हें लिख ही चुका हूँ कि जो कार्य तुम्हारा नहीं है उस कार्यके विषयमें तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। इस सम्बन्धमें एक अन्य सूचना हमें एक अन्य श्लोकमें मिलती है :

'तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि' ।[१]

यह श्लोक तुम्हें दूसरे अध्याय में मिलेगा । अर्थ यह है कि जिस कार्यको तुम रोक नहीं सकते उसके लिए शोक करना उचित नहीं । भगवान् कृष्णने यह कहकर

  1. भगवद्गीता, २-२७।