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पत्र : बाल कालेलकरको

काकीका कोई अनिष्ट नहीं होता; बल्कि इसमें तो उनका लाभ ही है । में ऐसा मानता हूँ कि अहिंसा धर्म जिस मूल मान्यतासे उत्पन्न होता है, वह यह है कि एककी उन्नति में सबकी उन्नति है और एककी अधोगति में सबकी अधोगति है । इसीलिए अहिंसा धर्म यह आदेश देता है कि हमें प्राणिमात्रके प्रति दयाभाव रखना चाहिए । काकी और तुम अज्ञान अथवा मोहके कारण काकासाहबकी त्याग-वृत्तिको रोको तो इसमें तुम्हारा, काकासाहबका और समाजका श्रेय नहीं; बल्कि अश्रेय है । भोगके त्यागकी आवश्यकताका भान होने और वैसा कर सकनेकी शक्ति आनेके बाद यदि काकासाहब काकीको या तुम्हें खुश करने के लिए संन्यास लेनेसे रुकते हैं तो इसमें उनके मनुष्यत्व की हानि होती है। ऐसा भला तुम क्यों होने दोगे ? मेरे इन शब्दों- पर तुम गम्भीरतापूर्वक विचार करना और फिर जो तुम्हें सूझे, मुझे लिखना ।

अब तुम्हारे पत्रमें प्रस्तुत तुम्हारे एक विचारकी परीक्षा करना और रह जाता है । ऐसा लगता है कि तुम पितृ-भक्ति और मातृ-भक्ति में भेद करते हो । किन्तु वस्तुतः ये दोनों एक ही वस्तु हैं और पुत्र तो इनमें भेद कर ही नहीं सकता । किन्तु ज्ञानी पुत्रकी भक्ति अंधी नहीं होती । कल्पना करो कि पिता शराबी है और माता संयमी है; या पिता मद्यपान में अपने पुत्रकी सहायता चाहता है और माँ पुत्रको ऐसी सहा- यता देनेसे रोकती है। पुत्र माँकी आज्ञा स्वीकार करता है और पिताको मदद नहीं देता । इस उदाहरणमें स्पष्टतः पुत्र पितृ-भक्ति और मातृ-भक्ति दोनोंके ही धर्मका पालन करता है यद्यपि इस धर्मका पालन करते हुए वह अपने पिताके मनको दुःख पहुँचाता है । इस तरह यह उदाहरण इन दोनों भक्तियोंके भेदका उदाहरण नहीं बल्कि ज्ञानमय भक्तिका रहस्य समझाता है । यही बात तुम्हारे लिए भी लागू होती है । काकासाहब मानसिक संन्यास अपनायें इसमें उनका और तुम सब लोगोंका श्रेय है । अज्ञान और मोहके कारण काकीको यह बात अच्छी नहीं लगती । यदि तुम यह स्वीकार करो कि काकासाहबका संन्यास लेना उचित है तो माता-पिताके प्रति भक्तिका तुम्हारे लिए यही आदेश हो सकता है कि तुम्हें काकासाहबको मदद देनी चाहिए और काकीसे अनुरोध करना चाहिए कि वह काकासाहब के इस निश्चय- में अपनी सम्मति प्रदान करे और यदि वह सम्मति न दे तो भी तुम्हें तो उसमें अपनी सम्मति देनी ही चाहिए और ऐसा विश्वास रखना चाहिए कि अन्तमें काकीजी भी इस धर्मको समझ जायेंगी ।

तुम्हारा मन काकीके साथ रहनेका होता है, यह मैं समझ सकता हूँ किन्तु यह मोह है । विद्यार्थीके लिए तुम संन्यासकी यानी ब्रह्मचर्य आश्रमकी आवश्यकता अपने पत्र में स्वीकार करते हो । प्राचीनकालमें विद्यार्थी अपने माँ-बापका घर छोड़कर गुरुके साथ रहता था । हम यहाँ इस आश्रम में वैसी ही स्थिति वापस लानेका प्रयत्न कर रहे हैं। तुम्हें इस प्रयत्न में सहायक होना चाहिए। माँ-बापकी अनुपस्थिति में सन्तोषपूर्वक और संयमपूर्वक रहना सीखना चाहिए। मैं मानता हूँ कि गुरुवर्ग में अभी इतना संयम, इतना ज्ञान और इतना प्रेम नहीं है कि विद्यार्थी अपने माता- पिताको आसानीसे भूल सके । किन्तु यह तो तुम जानते ही हो कि हम एक ऐसी