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३१२. भाषण : हरिहरमें [१]

१३ अगस्त, १९२७

कहते हैं, यदि ईश्वरने मनुष्यको अपने ही रूपमें गढ़ा तो मनुष्यने भी अपने रूपके अनुसार ईश्वरकी रचना की । इसलिए यदि हम आज अपने मन्दिरोंमें जो कुछ देखते हैं, वह हमारी, हम आस्थाशून्य भक्तोंकी निष्प्राण प्रतिमाएँ मात्र हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। अगर हम ईश्वरकी जीवन्त प्रतिमाएँ बनाना चाहते हैं तो हमें अपने जीवनको नया रूप देना होगा, अपने साम्प्रदायिक झगड़ोंको समाप्त करना होगा, दलितों और शोषितोंको मित्र बनाना होगा और पवित्र जीवन व्यतीत करना होगा । त्रिदेवकी हिन्दू कल्पनामें हरि संरक्षक हैं और हर संहारक हैं। जब ईश्वर देखता है कि धनवान लोग निर्धन लोगोंको संरक्षण देनेके बदले उनका शोषण कर रहे हैं, तब वह अपना हरका भयंकर रूप धारण करता है और सर्वत्र संहार मचा देता है। जब धनवान और निर्धन एक-दूसरेके सुख-दुःखको अपना सुख-दुःख बना लेंगे तब हरि और हर एक हो जायेंगे, और मेरी आकांक्षा देशको चरखेकी दीक्षा देकर हरिहरेश्वरकी सच्ची और जीवन्त प्रतिमा स्थापित करनेकी है। चरखा यज्ञका प्रतीक है और देवताकी प्रतिमाको प्रतिष्ठित करनेके लिए यज्ञ आवश्यक है ।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २५-८-१९२७

३१३. स्वयंसेवकोंसे

इस समय गुजरातपर जो आपत्ति आई है वैसी आपत्तिका सदुपयोग भी किया जा सकता है और दुरुपयोग भी । ईश्वरसे डरकर चलनेवाले लोग ऐसी भयंकर बाढ़ोंसे नम्रता, सादगी, सचाई, दया आदि सीखते हैं । वे समझ लेते हैं कि इस क्षणभंगुर संसारमें मनुष्य अपना जीवन जितने त्याग और संयमसे बिताये उतना ही अच्छा है। किन्तु दुष्ट जन ऐसे समय में चोरी करते हैं, लूट-मार करते हैं और अनेक तरहसे अपनी दुष्टताको पोषित करते हैं । अनेक बार दानका भी दुरुपयोग होता है। बड़े क्षेत्रमें मदद पहुँचाते समय अनेक सेवकोंकी आवश्यकता होती है । वे यदि लालची होते हैं तो अपने हाथ आया पैसा स्वयं हजम कर जाते हैं। इस तरहके दुरुपयोगसे गुजरात पूरी

  1. महादेव देसाईके “ साप्ताहिक पत्र" से । सभाका आयोजन हरिहरेश्वर मन्दिरके सामने किया गया था।