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स्वयंसेवकोसे

जायेगी कि वे हर तरहके लालचसे दूर रहेंगे और अपना कार्यं केवल सेवाभावसे ही करके अपने नामको सुशोभित करेंगे।

स्वयंसेवकको बिलकुल अलग प्रकारके लालचका प्रलोभन होता है । वह चोरकी तरह चोरी नहीं करता, लेकिन स्वयंसेवक होनेके नाते कुछ अभिमान रखता है और सेवक होनेके बावजूद लोगोंसे कुछ इस तरहकी सेवाकी आशा करता है मानो वह उनका उपकारक हो । वह खुद खाकर खिलाता है, पहनकर पहनाता है और लोग यदि उसके आदेश का पालन नहीं करते तो वह उनसे रूठ जाता है। मैं आशा करता हूँ कि ऐसे लालचोंसे प्रत्येक स्वयंसेवक बचकर चलेगा ।

स्वयंसेवकोंको समझना चाहिए कि जो पैसा इकट्ठा हो रहा है उसमें गरीब लोग भी असुविधा उठाकर पैसा दे रहे हैं। मेरा तो विश्वास है कि हमें पैसेकी तंगी नहीं रहेगी। लेकिन यदि इस पैसेका सदुपयोग नहीं हुआ तो हमारा किया व्यर्थ होगा ।

इसके अलावा बिलकुल गरीब तो सहायताका लाभ पानेसे रह जायें और बलवान उसे पा जायें, इस भयसे भी हमें बचना है। हालाँकि मददकी जरूरत के बावजूद मदद न लेनेके सुन्दर उदाहरणोंके समाचार मेरे पास अभीसे आने लगे हैं फिर भी जरूरत हो या न हो तब भी चूंकि मदद मिल रही है इसलिए उसे लेनेवाले लोग तो पड़े ही हुए हैं, यह में अपने पूर्वानुभवसे जानता हूँ । जहाँ देनेकी जरूरत न हो वहाँ झूठी दया, भय अथवा लज्जावश एक कौड़ी न देनेका नियम भी उतना ही आव- श्यक है जितना सुपात्रको जैसे भी हो मदद पहुँचाना है ।

ऐसे भयानक प्रसंगपर मनुष्यका मन बहुत उदार हो जाता है और जो भी माँगे उसे देना चाहता है । ऐसे अमर्यादित दानसे लोगोंका भला होता है, ऐसा मैं नहीं मानता। सामान्य नियम तो यह है कि सब लोग अपने ऊपर आ पड़े दुःखको स्वयं उठा लें। सब अपना-अपना बोझ स्वयं उठा लें तो जो सचमुच असहाय हैं ऐसे लोग दुनियामें बहुत कम निकलें । परन्तु अनेक लोग अनेक प्रकारसे दूसरोंपर भाररूप हो जाते हैं। जितना उनका अधिकार होता है उससे अधिक भोग भोगते हैं इसीलिए दरिद्र और अपंग लोग ज्यादा संख्यामें दिखाई देते हैं । अतः ऐसे समय में वास्त- विक और विपुल प्रमाणमें सहायता देनेका कार्य तो थोड़े ही दिनोंतक करना होगा । और यह सहायता चंद दिनोंतक उन्हीं लोगोंको देनी है जिनके पास खाने-पहननेको न हो । बादमें तो सबको उनका मार्ग बतानेकी बात ही रह जाती है। जिनके हाथ- पाँव भले- चंगे हैं उन्हें ज्यादातर पैसेका दान नहीं देना चाहिए ।

महाप्रलय के बाद तो नवीन सृष्टिकी रचना होती है । यह बाढ़-रूपी प्रलय महाप्रलय भले ही न हो परन्तु है तो उसी तरहका । इसलिए यदि स्वयंसेवक सुधारक हों, ज्ञानी और धैर्यवान हों तो उन्हें भी नवीन सृष्टिकी रचना करनी चाहिए, उन्हें लोगोंको अपनी बुरी आदतोंका त्याग करनेके लिए उत्साहित करना चाहिए। वे लोगोंको घरोंका निर्माण करनेमें नये विचार दे सकते हैं। जो गाँव उजड़ गये हैं वे जैसे-तैसे फिरसे उठ खड़े हों, इसकी बजाय कोशिश यह होनी चाहिए कि वे सुव्य- वस्थित रूपसे बनाये जायें। जिन गाँवोंमें जब-तब बाढ़का प्रकोप होता रहता है, उन्हें