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३१७. पत्र : सोंजा श्लेसिनको

स्थायी पता : साबरमती आश्रम
१४ अगस्त, १९२७

प्रिय कुमारी श्लेसिन,

तुम्हारा २४ जूनका पत्र मिला । साथमें २१ पौंड, १० शिलिंगकी रसीद भेज रहा हूँ। अगर तुम गुजराती भूल न गई हो तो गुजराती लिखावट पढ़ ही लोगी ।

जहाँतक मैं समझ सकता हूँ, मेरे बीमार होनेका कारण यह था कि मैंने अपने शरीर और दिमाग दोनोंसे शक्तिसे अधिक काम लिया; लगभग हर रोज कई-कई सभाओं में बोलता था और मोटरगाड़ीमें बैठकर जगह-जगह भागता फिरता था। जिस दिन[१] में बीमार हुआ, उस दिन अत्यन्त व्यस्त था और बड़ी भाग-दौड़ मची हुई थी; तिसपर पिछली रात में आराम भी नहीं कर पाया था । डाक्टरोंका निदान भी यही है । लेकिन, मुझे लगता है कि अगर में सावधानी बरतता तो इससे बच सकता था। जिस दिन बहुत व्यस्तता और भाग-दौड़ मची हुई थी, उस दिन अगर मैं पूरा उपवास कर जाता तो बीमार होनेसे बच सकता था। लेकिन, उन दिनों मैं करता यह था कि आधे भोजनपर रहता था ।

जिसे तुमने आत्मकथा कहा है, उसका पहला खण्ड तुम्हें भेज दिया जायेगा । सत्याग्रह आन्दोलनका इतिहास तीन साल पहले प्रकाशित हुआ था, लेकिन अंग्रेजी अनुवाद अभीतक उपलब्ध नहीं है । इसे श्री गणेशन् अपनी पत्रिका ' करेंट थॉट' में तिमाही किस्तों में छाप रहे हैं। मुझे उम्मीद है कि अन्तमें यह पुस्तकाकार भी प्रकाशित होगा । लेकिन, अगर तुम अपनी गुजरातीका ज्ञान ताजा कर सको तो तुम्हें इसकी गुजराती प्रति भेज सकता हूँ ।

मेरा आहार है शहद के साथ ३० औंस बकरीका दूध, जो भी मिल जाये वह फल और आम तौरपर घरकी बनाई रोटी - यहूदियोंके 'पासओवर' त्योहारके अवसरपर प्रयुक्त होनेवाले बिना खमीरके केकके ढंगकी। गरीदार मेवा बिलकुल नहीं लेता । कुल पाँच ही चीजें लेता हूँ, मतलब यह कि दूध, अंगूर, सन्तरे और रोटी, ये तो चार हुई और अगर उसमें अंजीर मिला दूं तो वह पांचवीं चीज हुई।

मुझे नहीं मालूम था कि तुमने १५० पौंड लिये थे । में तो समझता था कि ४० पौंड ही लिये थे । मणिलाल और उसकी पत्नीसे मिलकर तुम्हें कैसा लगा, यह लिखना; में उसकी राह देखूंगा।

श्री एन्ड्रयूजके लौटनेपर में तुम्हारी दस्तकारीका नमूना देखूंगा, बशर्ते कि उन्होंने उसे किसीको दे न दिया हो या खो न दिया हो । मेरे बारेमें यह जानकर तुम्हें धक्का लगा कि मैं एक ही कपड़ा पहनता हूँ । पता नहीं, उस धक्केसे तुम सँभल पाई हो या नहीं,

  1. २६ मार्च, १९२७; देखिए खण्ड ३३, पृष्ठ २०९ ।