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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आपने जो पद्यांश उद्धृत किये हैं, वे रोचक हैं और में उनका उपयोग कर सकता हूँ । कृपया, आप मुझे रचयिताका नाम बतायें ।

हृदयसे आपका,

श्री० एम० एफ० खान

पालम रोड
फ्रेजर टाउन

बंगलोर

अंग्रेजी (एस० एन० १९८०२) की माइक्रोफिल्मसे ।

३२२. पत्र : देवचन्द पारेखको

शिमोगा
१४ अगस्त, १९२७

तुम्हारे तारोंका जवाब दे दिया है। तुम्हारे पत्र भी मिल गये हैं। मैं तुम्हारा आग्रह समझ सकता हूँ । पर मुझे निश्चय है कि इस समय मुझे अपना स्थान नहीं छोड़ना चाहिए। मुझे तो ऐसा भी लगता है कि मेरे वहाँ[१] आनेसे लाभके बजाय हानि भी हो सकती है। मेरे पहुँचने पर वल्लभभाई अपनी शक्ति समेट लेंगे, यह एक हानि तो मेरी निगाहमें है ही। दूसरी हानियोंकी भी में कल्पना कर सकता हूँ। में आ जाऊँ तो भी हम उतना चन्दा नहीं एकत्र कर सकते जितना तुम सोचते हो । इस समय जोर-जबरदस्तीसे ऐसा करनेका प्रयत्न भी नहीं करना चाहिए। मारवाड़ी उसीकी मार्फत काम करें जिसपर तुम्हें पूरा विश्वास हो । मुझे यही उचित भी लगता है । विश्वास में प्रामाणिकता और योग्यता दोनों ही बातें आ जाती हैं। जितनी कुशलता- की कल्पना वे एक व्यापारीके विषय में कर सकते हैं उतनी मेरे अथवा तुम सब मेरे साथियोंके विषय में नहीं कर सकते । और करें भी कैसे ? भाई अमृतलाल अपना काम अलग करते हैं। अपनी होशियारी और सेवासे उन्होंने विशेष व्यक्तियोंका विश्वास प्राप्त कर लिया है। वे जबतक यहाँ कोई काम करते रहेंगे तबतक वे लोग उन्हें उसके लिए पैसा देते रहेंगे और में उसे ठीक मानता हूँ । 'हिन्द सेवक समाज' (सर्वेन्ट्स आफ इंडिया सोसाइटी) के विषय में भी ऐसा ही समझो। हमारा धर्म सेवाभावपूर्वक उतना ही करनेका है जितना आसानीसे हो सके ।

तुमने लिखा है कि अगर में तुम सबको संकट निवारणके काम में लगा दूं तो तुम उसमें जुट जाओगे और परिषद् को छोड़ दोगे । यह विचारधारा मुझे पसन्द नहीं है । मैं लगा दूं तो तुम इस काम में लग जाओगे अन्यथा परिषद् के आयोजनका काम करोगे यह कैसी विचित्र बात है । ऐसे समय परिषद्का आयोजन करनेकी बात यदि तुम्हें ठीक लगती है तो तुम्हें परिषद्का आयोजन करना ही चाहिए फिर चाहे मेरा जो

  1. गुजरात ।